Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 220) [प्रज्ञापनासूत्र असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक शीत आदि तीनों ही प्रकार की वेदना वेदते हैं / तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देव शीतल जल से पूर्ण महाह्रद प्रादि में जब जल क्रीडा प्रादि करते हैं, तब शीतवेदना वेदते हैं। जब कोई मद्धिक देव क्रोध के वशीभूत होकर अत्यन्त विकराल भ्र कुटि चढ़ा लेता है या मानो प्रज्वलित करता हआ देख कर मन ही मन संतप्त होता है, तब उष्णवेदना वेदना है। जैसे ईशानेन्द्र ने बलिचंचा राजधानी के निवासी असुरकुमारों को संतप्त कर दिया था अथवा उष्ण पुद्गलों के सम्पर्क से भी वे उष्णवेदना वेदते हैं / जब शरीर के विभिन्न अवयवों में एक साय शोत और उष्ण पुद्गलों का सम्पर्क होता है, तब वे शीतोष्ण वेदना वेदते हैं। पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्य पर्यन्त बर्फ आदि पड़ने पर शीतवेदना वेदते हैं, अग्नि आदि का सम्पर्क होने पर उष्णवेदना वेदते हैं तथा विभिन्न अवयवों में दोनों प्रकार के पुद्गलों का संयोग होने पर शीतोष्णवेदना वेदते हैं।' द्वितीय द्रव्यादि-वेदनाद्वार 2060. कतिविहा गं भंते ! वेदणा पण्णता ? गोयमा ! चउबिहा वेदणा पण्णत्ता / तं जहा-दव्वश्रो खेत्तनो कालो भावतो। [2060 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2060 उ.] गौतम ! वेदना चार प्रकार की कही गई है / यथा - (1) द्रव्यतः, (2) क्षेत्रतः, (3) कालतः और (4) भावतः (वेदना)। 2061. रइया णं भंते ! कि दम्वनो वेदणं वेदेति जाव कि भावओ वेदणं वेदेति ? गोयमा! दम्वनो वि वेदणं वेदेति जाव भावो वि वेदणं वेदेति / [2061 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या द्रव्यतः वेदना वेदते हैं यावत् भावतः वेदना वेदते हैं ? [2061 उ.] गौतम ! वे द्रव्य से भी वेदना वेदते हैं, क्षेत्र से भी बेदते हैं यावत् भाव से भी वेदते हैं। 2062. एवं जाव वेमाणिया। [2062] इसी प्रकार का कथन यावत् वैमानिक पर्यन्त करना चाहिए। विवेचन-चतुर्विध वेदना का तात्पर्य--वेदना की उत्पत्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप सामग्री के निमित्त से होती है, इसलिए द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से चार प्रकार से वेदना कही है। किसी पुद्गल प्रादि द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होने वाली वेदना द्रव्यवेदना कहलाती है / नारक प्रादि उपपातक्षेत्र आदि से होने वाली वेदना क्षत्रवेदना कही जाती है। ऋतु, दिन-रात प्रादि काल के संयोग से होने वाली वेदना कालवेदना कहलाती है और वेदनीयकर्म के उदयरूप प्रधान कारण से उत्पन्न होने वाली वेदना भाववंदना कहलाती है। चौबीस ही दण्डकों के जीव पूर्वोक्त चारों प्रकार से वेदना का अनुभव करते हैं / 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 856-887 2. (क) प्रज्ञापना, (प्रमेय बोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 888 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रो. कोष. भाग 6, पृ. 1439 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org