Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 226] [प्रज्ञापनासूत्र [3] गौतम ! ज्योतिष्क देव दो प्रकार के कहे हैं। यथा--मायिमिथ्याष्टिउपपन्नक और अमायिसम्यग्दृष्टि उपपन्नक / उनमें से जो मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं और जो अमाथिसम्यग्दष्टि उपपन्नक हैं, वे निदावेदना वेदते हैं। इस कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि ज्योतिष्क देव दो प्रकार हैं, की वेदना वेदते इत्यादि / 2084. एवं वेमाणिया वि। . ॥पण्णवणाए भगवतीए पंचतीसइमं वेयणापयं समत्तं // [2084] वैमानिक देवों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन-निदा और अनिदा : स्वरूप और अधिकारी-जिसमें पूर्ण रूप से चित्त लगा हो, जिसका भलीभांति ध्यान हो, उसे निदा कहते हैं, जो इससे बिलकुल भिन्न हो, अर्थात -जिसकी ओर चित्त बिलकुल न हो, वह अनिदावेदना कहलाती है। जो संज्ञीजीव मर कर नारक हुए हों, वे संज्ञीभूत नारक और जो असंज्ञी जीव मरकर नारक हुए हों, वे असंझी नारक कहलाते हैं। इनमें से संज्ञीभूत नारक निदावेदना और असंज्ञीभूत नारक अनिदावेदना वेदते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य और वाणव्यन्तर देवों का कथन है / ज्योतिष्क देवों में जो मायिमिथ्यादष्टि हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं और जो अमायिसम्यग्दप्टि हैं, वे निदावेदना वेदते हैं / पृथ्वीकायिक से लेकर चतुरिन्द्रियपर्यन्त सभी अनिदावेदना वेदते हैं, निदावेदना नहीं, क्योंकि असंज्ञी होने से इनके मन नहीं होता, इस कारण से ये अनिदावेदना ही वेदते हैं / असंज्ञी जीवों को जन्मान्तर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों का अथवा वैर आदि का स्मरण नहीं होता। तथ्य यह है कि केवल तीव्र अध्यवसाय से किये गए कर्मों का ही स्मरण होता है, किन्तु पहले के असंज्ञीभव में पृथ्वीकायिकादि का अध्यवसाय तीव्र नहीं था, क्योंकि वे द्रव्यमन से रहित थे। इस कारण असंज्ञी नारक पूर्वभवसम्बन्धी विषयों का स्मरण करने में कुशल चित्त नहीं होता, जबकि संज्ञी नारक पूर्वभवसम्बन्धी कर्म या वैर-विरोध का स्मरण करते हैं। इस कारण वे निदावेदना वेदते हैं। सभी पृथ्वीकायिक आदि जीव असंज्ञी होने से विवेकहीन अनिदावेदना वेदते हैं।' // प्रज्ञापना भगवती का पैतीसवाँ वेदनापद समाप्त / / LID 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 903 से 905 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 557 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org