________________ 238] [प्रज्ञापनासूत्र [2066-2] इसी प्रकार (नारकों के समान) यावत् वैमानिकों तक का कथन समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि वनस्पनिकायिकों और मनुष्यों को वक्तव्यता में इनसे भिन्नता है / यथा-- [प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों के कितने आहारकसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त (पाहारकसमुद्रघात प्रतीत हुए हैं)। [प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्राहारकसमुदघात प्रतीत हुए हैं ? [उ.] गौतम ! (उनके पाहारकसमुद्घात) कथंचित् संख्यात और कथंचित् असंख्यात (हुए हैं / ) इसी प्रकार उनके भावी आहारकसमुद्घात भी समझ लेने चाहिए। 2100. [1] रइयाणं भंते ! केवतिया केवलिसमुग्घाया प्रतीया ? गोयमा ! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! असंखेज्जा। [2100-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [2100-1 उ.] गौतम ! एक भी नहीं है। [प्र.] भगवन ! नारकों के कितने केवलिसमुद्घात आगामी हैं। [उ.] गौतम ! वे असंख्यात हैं / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / णवरं वणष्फइकाइय-मणूसेसु इमं णाणत्तं / वणप्फइकाइयाणं भंते ! केवतिया केवलिसमुग्घाया अतीता? गोयमा! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता। मणसाणं भंते ! केवतिया केवलिसमुग्घाया प्रतीया ? गोयमा ! सिय अस्थि सिय णत्थि। जदि अस्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिणि का, उक्कोसेणं सतपुहत्तं। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा। [2100-2 प्र.] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों में ( केवलिसमुद्घात के विषय में पूर्वकथन से) भिन्नता है। यथा [प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिकों के कितने केवलिसमुद्धात अतीत हैं ? [उ.] गौतम ! (इनके केवलिससुद्घात अतीत) नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org