________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद [239 [प्र.] भगवन् ! इनके कितने भावी केवलिसमुद्धात हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हैं ? [उ.] गौतम ! कथञ्चित् हैं और कथञ्चित नहीं हैं। यदि हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व हैं। [प्र.] भगवन् ! उनके भावी केवलिसमुद्घात कितने कहे हैं ? [उ.] गौतम ! कथञ्चित् संख्यात हैं और कथञ्चित् असंख्यात हैं / विवेचन-नारकादि में बहुत्व की अपेक्षा से बेदनासमुद्घात आदि का निरूपण--- नारकों के वेदनासमुद्घात अनन्त अतीत हुए हैं, क्योंकि बहुत-से नारकों को व्यवहारराशि से निकले अनन्तकाल हो चुका है। इनके भावी समुद्घात भी अनन्त हैं, क्योंकि बहुत से नारक अनन्तकाल तक संसार में स्थित रहेंगे। असुरकुमारादि भवनपतियों, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के भी वेदनासमुद्घात अतीत और अनागत (भावी) में अनन्त होते हैं। वेदनासमुद्घात की भांति कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजस समुद्धात की वक्तव्यता भी समझ लेनी चाहिए।' इन सबका निरूपण चौबीस दण्डकों में बहुवचन के रूप में करना चाहिए। श्राहारकसमुद्घात--नारकों के अतीतमाहारकसमुद्घात असंख्यात हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि सभी नारक असंख्यात हैं, तथापि उनमें भी कुछ असंख्यात नारक ऐसे होते हैं, जो पहले पाहारकसमदघात कर चके हैं, उनकी अपेक्षा से नारकों के अतीत आहारकसमदघात असंख्यात कहे हैं। इसी प्रकार नारकों के भावी आहारकसमुद्घात भी पूर्वोक्त युक्ति से असंख्यात समझ लेने चाहिए। वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों को छोड़कर शेष दण्डकों में वैमानिक पर्यन्त अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात पूर्ववत् असंख्यात हैं / वनस्पतिकायिकों के प्रतीत पाहारकसमुद्घात-बहुवचन की अपेक्षा से अनन्त हैं, क्योंकि ऐसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं, जिन्होंने चौदह पूर्वो का ज्ञान भूतकाल में किया था, किन्तु प्रमाद के वशीभूत होकर संसार की वृद्धि करके वनस्पतिकायिकों में विद्यमान हैं। वनस्पतिकायिकों के भावी आहारकसमुद्धात भी अनन्त हैं, क्योंकि पृच्छा के समय जो जीव वनस्पतिकाय में हैं, उनमें से अनन्त जीव वनस्पतिकायिकों में से निकल कर मनुष्यभव पाकर चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करके आहारकसमुद्घात करके सिद्धिगमन करेंगे। मनुष्यों के अतीत-अनागत श्राहारकसमुद्घात-बहुवचन की अपेक्षा से कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं। तात्पर्य यह है कि संमूच्छिम और गर्भज मनुष्य मिलाकर उत्कृष्ट संख्या में अंगुलमात्र क्षेत्र में जितने प्रदेशों की राशि है, उसके प्रथम वर्गमूल का तृतीय वर्गमूल से गुणाकार 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ. रा. कोष, भा. 7, पृ. 438 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org