________________ 234] [प्रज्ञापनासूत्र [2095-1 उ.] गौतम ! वे किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके (प्रतीत आहारकसमुद्घात) होते हैं, उसके भी जघन्य एक या दो होते हैं और उत्कृष्ट तीन होते हैं / [प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के भावी समद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार समुद्घात होते हैं। [2] एवं णिरंतरं जाव वेमाणियस्स। नवरं मणूसस्स प्रतीता वि पुरेक्खडा वि जहा रइयस्स पुरेक्खडा। [2995-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् लगातार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्य के अतीत और अनागत नारक के (अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात के) समान हैं। 2066. [1] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवतिया केवलिसमुग्धाया प्रतीया? गोयमा ! गस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि / जस्सऽस्थि एक्को। [2066-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के अतीत केवलिसमुद्घात कितने हुए हैं ? [2066-1 उ.] गौतम ! (एक भी नारक के एक भी अतीत केवलिसमुद्घात) नहीं हैं / [प्र.] भगवन् ! (एक-एक नारक के) भावी (केवलिसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी (नारक) के (भावी केवलिसमुद्घात) होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके एक ही होता है / [2] एवं जाय वेमाणियस्स। णवरं मणूसस्स अतोता कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽस्थि एक्को / एवं पुरेक्खडा वि / _ [2096-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त (अतीत और अनागत केवलिसमुद्घात. विषयक कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि किसी मनुष्य के अतीत केवलिसमुद्घात होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके एक ही होता है। इसी प्रकार (अतीत केवलिसमुद्घात के समान मनुष्य के) भावी (केवलिसमुद्धात) का भी (कथन जान लेना चाहिए)। विवेचन—एक-एक जीव के प्रतीत-अनागत समुद्घात कितने ?–प्रस्तुत प्रकरण में एक-एक जीव के कितने वेदनादि समुद्धात अतीत हो चुके हैं और कितने भविष्य में होने वाले हैं ?, इसका चौवीस दण्डकों के क्रम से निरूपण किया गया है। (1) वेदनासमुद्घात-एक-एक नारक के अनन्त वेदनासमुद्घात प्रतीत हुए हैं, क्योंकि नारकादि स्थान अनन्त हैं। एक-एक नारक-स्थान को अनन्तबार प्राप्त किया है और एक बार नारक-स्थान की प्राप्ति के समय एक नारक के अनेक बार वेदनासमुद्घात हुए हैं। यह कथन बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए। बहुत-से जीवों को अव्यवहार-राशि से निकले अनन्तकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org