________________ पैतीसवाँ वेदनापद [219 [4] धूमप्पभाए एवं चेव दुविहा / नवरं ते बहुयतरागा जे सीयं वेदणं वेदेति, ते थोवतरागा जे उसिणं बेयणं वेदेति / [2057-4] धूमप्रभा पृथ्वी के (नै रयिकों) में भी दोनों प्रकार की वेदना कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इनमें वे नारक बहुत हैं, जो शीतवेदना वेदते हैं तथा वे नारक अल्प हैं, जो उष्णवेदना वेदते हैं। [5] तमाए तमतमाए य सीयं वेदणं वेदेति, णो उसिणं वेदणं वेदेति, णो सोमोसिणं घेदणं वेदेति। [2057-5] तमा और तमस्तमा पृथ्वी के नारक शीतवेदना वेदते हैं, किन्तु उष्णवेदना तथा शीतोष्णवेदना नहीं वेदते / 2058. असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा! सीयं पि वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेदणं बेदेंति, सोतोसिणं पि वेदणं वेदेति / {2058 प्र. भगवन् ! असुरकुमारों के विषय में (पूर्ववत्) प्रश्न ? [2058 उ.] गौतम ! वे शीतवेदना वेदते हैं, उष्णवेदना भी वेदते हैं और शीतोष्णवेदना भी वेदते हैं। 2056. एवं जाव बेमाणिया। [2059] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए)। विवेचन-शीतादि त्रिविध वेदना और उनका अनुभव-वेदना एक प्रकार की अनुभूति है, वह तीन प्रकार की हैं-शीत, उष्ण और शीतोष्ण / शीतल पुद्गलों के सम्पर्क से होने वाली वेदना शीतवेदना, उष्ण पुद्गलों के संयोग से होने वाली वेदना उष्णवेदना और शीतोष्ण पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न होने वाली बेदना शीतोष्णवेदना कहलाती है।' सामान्यतया नारक शीत या उष्ण वेदना का अनुभव करते हैं. किन्तु शीतोष्णवेदना का अनुभव नहीं करते। प्रारम्भ की तीन नरकपृथ्वियों के नारक उष्णवेदना वेदते हैं, क्योंकि उनके आधारभूत नारकावास खैर के अंगारों के समान अत्यन्त लाल, अतिसंतप्त एवं अत्यन्त उष्ण पुद्गलों के बने हुए हैं। चौथी पंकप्रभापृथ्वी में कोई नारक उष्णवेदना और कोई शीतवेदना का अनुभव करते हैं, क्योंकि वहाँ के कोई नारकवास शीत और कोई उष्ण होते हैं। इसलिए वहाँ उष्णवेदना अनुभव करने वाले नारक अत्यधिक हैं, क्योंकि उष्णवेदना धक नारकावासों में होती है, जबकि शीतवेदना वाले नारक अत्यल्प हैं, क्योंकि थोडे-से नारकावासों में ही शीतवेदना होती है / धूमप्रभापृथ्वी में कोई नारक शीतवेदना और कोई उष्णवेदना का अनुभव करते हैं, किन्तु वहाँ शीतवेदना वाले नारक अत्यधिक हैं और उष्णवेदना वाले नारक स्वल्प हैं, क्योंकि वहाँ अत्यधिक नारकावासों में शीतवेदना ही होती है, उष्णवेदना वाले नारकावास बहुत ही कम हैं / छठी और सातवीं नरकपृथ्वियों में नारक शोतवेदना का ही अनुभव करते हैं, क्योंकि वहां के सभी नारक उष्ण स्वभाव वाले हैं और नारकावास हैं अत्यधिक शीतल / 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 885-886 (ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, अ. रा. कोष, भाग 6, पृ. 1438-39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org