Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पैतीसवाँ वेदनापद] [ 223 [2070 उ.] गौतम ! वे दुःखवेदना भी वेदते हैं, सुखवेदना भी वेदते हैं और अदुःख-असुखावेदना भी वेदते हैं। 2071. एवं जाव वेमाणिया। [2071] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। विवेचन--दुःखादि त्रिविध वेदना का स्वरूप-जिसमें दुःख का वेदन हो वह दुःखा, जिसमें सुख का वेदन हो वह सुखा और जिसमें सुख भी विद्यमान हो और जिसे दुःखरूप भी न कहा जा सके, ऐसी वेदना अदुःख-असुखरूपा कहलाती है। साता, असाता और सुख, दुःख में अन्तर–स्वयं उदय में आए हुए वेदनीयकर्म के कारण जो अनुकूल और प्रतिकूल बेदन होता है, उसे क्रमशः साता और असाता कहते हैं तथा दूसरे के द्वारा उदीरित (उत्पादित) साता और असाता को सुख और दुःख कहते हैं, यही इन दोनों में अन्तर है। सभी जीव इन तीनों प्रकार की वेदना को वेदते हैं।' छठा प्राभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदनाद्वार 2072. कतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा वेदणा पण्णत्ता / तं जहा-अब्भोवगमिया य ओवक्कमिया य। [2072 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2072 उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है। यथा—ाभ्युपगमिकी और औपऋमिकी। 2073. रइया णं भंते ! कि अम्भोवगमियं वेदणं वेदेति ओवक्कमियं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! णो प्रभोवगमियं वेदणं वेदेति, प्रोवस्कमियं वेदणं वेति / [2073 प्र.] भगवन् ! नैरयिक प्राभ्युपगमिको वेदना वेदते हैं या औपक्रमिकी वेदना वेदते हैं ? [2073 उ.] गौतम ! वे प्राभ्युपगमिकी वेदना नहीं वेदते, औपक्रमिकी वेदना वेदते हैं। 2074. एवं जाव चरिदिया। [2074] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक कहना चाहिए / 2075. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य दुविहं पि वेदणं वेदेति / [2075] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य दोनों प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं। 2076. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा रइया (सु. 2073) / [2076] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में (सू. 2073 में उक्त) नैरियकों के समान कहना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टोका), भा. 5, पृ. 893-894 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 557 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org