________________ 4. अचरम हैं, 5. दरमान्त प्रदेश हैं, 6. अचरमान्त प्रदेश हैं। इन छह विकल्पों को लेकर 24 दण्डकों के जीवनों का प्रत्यादि दृष्टि से विचार किया गया है। उदाहरणार्थ, गति की अपेक्षा से चरम उसे कहते हैं कि जो अब अन्य किसी गति में न जाकर मनुष्य गति में से सीधा मोक्ष में जाने वाला है। किन्तु मनुष्य गति में से सभी मोक्ष में जाने वाले नहीं हैं, इसलिए जिनके भव शेष हैं वे सभी जीव गति की अपेक्षा से अचरम हैं। इसी प्रकार स्थिति प्रादि से भी चरम-अचरम का विचार किया गया है। भाषा : एक चिन्तन ग्यारहवें पद में भाषा के सम्बन्ध में चिंतन करते हुए बताया है कि भाषा किस प्रकार उत्पन्न होती है, कहाँ रहती है, उसकी प्राकृति क्या है ? साथ ही उसके स्वरूप-भेद-प्रभेद, बोलने वाला व्यक्ति प्रभात विविध महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर प्रकाश डाला गया है। जो बोली जाय वह भाषा है।१२५दूसरे शब्दों में जो दूसरों के अवबोध-समझने में कारण हो वह भाषा है / / 26 मानव जाति के सांस्कृतिक विकास में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाषा विचारों के आदान-प्रदान का प्रसाधारण माध्यम है। भाषा शब्दों से बनती है और शब्द वर्णात्मक हैं। इसलिए भाषा के मौलिक विचार के लिए वर्णविचार आवश्यक है, क्योंकि भाषा वर्ण और शब्द से अभिन्न है। भारतीय दार्शनिकों ने शब्द के सम्बन्ध में गंभीर चितन किया है. --शब्द क्या है ? उसका मूल उपादान क्या है? वह किस प्रकार उत्पन्न होता है ? अभिव्यक्त होता? और किस प्रकार श्रोताओं के कर्ण-कुहरों में पहुँचता है ? . कणाद प्रादि कितने ही दार्शनिक शब्द को द्रव्य न मानकर प्राकाश का गुण मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि शब्द पोद्गलिक नहीं है चूंकि उसके आधार में स्पर्श का प्रभाव है। शब्द आकाश का गुण है इसलिए शब्द का काश ही माना जा सकता है। प्राकाश स्पर्श से रहित है इसलिए उसका गुण शब्द भी स्पर्शरहित है और जो स्पर्शरहित है वह पुद्गल नहीं है। दूसरी बात पुद्गल रूपी होता है / रूपी होने से वह स्थूल है, स्थूल वस्तु न तो किसी सघन वस्तु में प्रविष्ट हो सकती है और न निकल ही सकती है। शब्द यदि पुद्गल होता तो वह स्थूल भी होता पर शब्द दीवाल को भेद कर बाहर निकलता है। इसलिए वह रूपी नहीं है और रूपी नहीं होने से वह पुद्गल भी नहीं है / तीसरा कारण यह है पौद्गलिक पदार्थ उत्पन्न होने के पूर्व भी दिखाई देता है और नष्ट होने के पश्चात् भी / उदाहरण के रूप में घड़ा बनने के पूर्व मिट्टी दिखाई देती है और घड़ा नष्ट होने पर उसके टुकड़े भी दिखाई देते हैं / इस प्रकार प्रत्येक पौदगलिक पदार्थ के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती रूप दगगोचर होते हैं। पर शब्द का न तो कोई पूर्वकालीन रूप दिखाई देता है और न उत्तरकालीन ही। ऐसी स्थिति में शब्द को पुदगल नहीं मानना चाहिए। चौथी बात यह है कि पौद गलिक पदार्थ दूसरे पौगलिक पदार्थों को प्रेरित करते हैं। यदि शब्द पुद्गल होता तो यह भी अन्य पुदगलों को प्रेरित करता / पर वह अन्य पुदगलों को उत्प्रेरित नहीं करता है, इसलिए शब्द को पोद्गलिक नहीं मान सकते। पांचवाँ कारण-शब्द आकाश का गुण है, आकाश स्वयं पुद्गल नहीं है, इसलिए उसका गुण-शब्द पुद्गल नहीं हो सकता। मीमांसक' दर्शन की प्रस्तुत युक्तियों के सम्बन्ध में हम जैनदृष्टि से चिंतन करेंगे। मीमांसक दर्शन में शब्द के आधार को स्पर्शरहित माना है किन्तु वस्तुत: शब्द का प्राधार स्पर्शरहित नहीं किन्तु स्पर्शवान् है। शब्द का आधार भाषावर्गणा है और भषावर्गणा में स्पर्श अवश्य होता है / अतः शब्द का आधार स्पर्श वाला होने से शब्द भी स्पर्श वाला है और स्पर्श वाला होने से पुदगल है। यहां पर यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि शब्द में यदि 128. भाष्यते इति भाषा। -प्रज्ञापना टीका 246. 129. भाषा अवबोधबीजभूता। -प्रज्ञापना टीका 256. [42] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org