________________ सौतीसवां परिचारणापद (211 - [2052-2] उनमें से कायपरिचारक (शरीर से विषयभोग सेवन करने वाले) जो देव हैं, उनके मन में (ऐसी) इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के शरीर से परिचार (मैथुन) करना चाहते हैं / उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे अप्सराएँ उदार आभूषणादियुक्त (शृगारयुक्त), मनोज्ञ, मनोहर एवं मनोरम उत्तरवैक्रिय रूप विक्रिया से बनाती हैं। इस प्रकार विक्रिया करके वे उन देवों के पास पाती हैं। तब वे देव उन अप्सरानों के साथ कायपरिचारणा (शरीर से मैथुनसेवन करते हैं। जैसे शीत पुदगल शीतयोनि वाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीत-अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, अथवा उष्ण पूदगल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्णअवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, उसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सरायों के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका इच्छामन (इच्छाप्रधान मन) शीघ्र ही हट जाता-तृप्त हो जाता है / [प्र.) भगवन् ! क्या उन देवों के शुक्र-पुद्गल होते हैं ? [उ.] हाँ (गौतम ! ) होते हैं। [प्र.] भगवन् ! उन अप्सरागों के लिए वे किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? [उ.] गौतम ! श्रोत्रन्द्रियरूप से, चक्षुरिन्द्रियरूप से, घ्राणेन्द्रियरूप से, रसेन्द्रिय रूप से, स्पर्शन्द्रियरूप से, इष्ट रूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से. अतिशय मनोज्ञ (मनाम) रूप से, सुभगरूप से, सौभाग्य-रूप-यौवन-गुण-लावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं। [3] तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ, एवं जहेव कायपरियारगा तहेव निरवसेसं भाणियव्वं / [2052-3] उनमें जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होतो है, जिस प्रकार काया से परिचारणा करने वाले देवों की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार (यहाँ भी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। [4] तत्थ णं जे ते स्वपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ-इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धि रूवपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहि देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउन्वंति, विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता तेसि देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा ताई अोरालाई जाव मणोरमाइं उत्तरवेउब्बियाई रूवाई उवदंसेमाणीओ उवदंसेमाणीनो चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धि रूवपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव जाव भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [2052-4] उनमें जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करना चाहते हैं / उन देवों द्वारा मन से ऐसा विचार किये जाने पर (वे देवियाँ) उसी प्रकार (पूर्ववत) यावत उत्तरवैक्रिय रूप की विक्रिया करती हैं / बिक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं, वहाँ जा पहुँचती हैं और फिर उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरवैक्रिय-कृत रूपों को दिखलाती-दिखलाती खड़ी रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं। शेष सारा कथन उसी प्रकार (पूर्व व ) यावत् वे बार-बार परिणत होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org