________________ 210] [प्रज्ञापनासूत्र - गोयमा ! भवणवति-वाणमंतर-जोइससोहम्मोसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा, सणंकुमारमाहिदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा, बंभलोय-लंतगेसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा, महासुक्क-सहस्सारेसु देवा सद्दपरियारगा, प्राणय-पाणय-पारण-अच्चुएसु कप्पेसु देवा मणपरियारगा, गेवेज्जपणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा, से तेणठेणं गोयमा ! तं चेव जाव मणपरियारगा। [2052-1 प्र.] भगवन् ! परिचारणा कितने प्रकार की कही गई है ? [2052-1 उ.] गौतम ! परिचारणा पांच प्रकार की कही गई है। यथा--(१) कायपरिचारणा, (2) स्पर्शपरिचारणा, (3) रूपपरिचारणा, (4) शब्दपरिचारणा और (5) मनःपरिचारणा। प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि परिचारणा पांच प्रकार की है, यथाकायपरिचारणा यावत मन:परिचारणा [उ.] गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देव कायपरिचारक होते हैं। सनतकुमार और माहेन्द्रकल्प में देव स्पर्शपरिचारक होते हैं। ब्रह्मलोक और ककल्प में देव रूपपरिचारक होते हैं।' महाशुक्र और सहस्रारकल्प में देव शब्द-परिचारक होते हैं। ग्रानत. प्राणत. प्रारण और अच्यूतकल्पों में देव मनःपरिचारक होते हैं। नौ ग्रेवेयकों के और पांच अनुत्तरौपपातिक देव अपरिचारक होते हैं / हे गौतम ! इसी कारण से कहा गया है कि यावत् अानत आदि कल्पों के देव मन:परिचारक होते हैं / [2] तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ–इच्छामो णं प्रच्छराहि सद्धि कायपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताम्रो अच्छरायो अोरालाई सिंगाराई मणुण्णाई मणोहराई मणोरमाई उत्तरवेउब्वियाई रुवाइं विउव्वंति, विउग्वित्ता तेसि देवाणं अंतियं पादुब्भवंति, तए णं ते देवा ताहि प्रच्छराहि सद्धि कायपरियारणं करेंति, से जहाणामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवतित्ता णं चिट्ठंति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ता णं चिट्ठति एवामेव तेहि देवेहि ताहिं अच्छराहि सद्धि कायपरियारणे कते समाणे से इच्छामणे खिप्पमेवावेति / अस्थि णं भंते ! तेसि देवाणं सुक्कपोग्गला ? हंता अस्थि। ते णं भंते ! तासि अच्छराणं कोसत्ताए भज्जो 2 परिणमंति ? गोयमा ! सोइंदियत्ताए चक्खिदियत्ताए घाणिवियत्ताए रसिदियत्ताए फासिदियत्ताए इट्टत्ताए कंतत्ताए मणुण्णताए मणामत्ताए सुभगत्ताए सोहग्ग-रूव-जोव्वण-गुणलायण्णत्ताए ते तासि भुज्जो भुज्जो परिणमंति। 1. 'काय-प्रवीचारा आ ऐशानात् / ' 'शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-ममःप्रवीचारा द्वयो योः।' -तत्त्वार्थ, अ.४, मृ. 8-9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org