________________ 205] प्रज्ञापनासून ते णं भंते ! कि पसस्था अप्पसस्था? गोयमा ! पसत्था वि अप्पसत्था वि। [2047 प्र.] भगवन् ! नारकों के कितने अध्यवसान (अध्यवसाय) कहे गए हैं ? [2047 उ.] गौतम ! उनके असंख्येय अध्यवसान कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! (नारकों के) वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? [उ.] गौतम ! वे प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं / 2048. एवं जाव वेमाणियाणं / [2048] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक का कथन जानना चाहिए / विवेचन–अध्यवसायद्वार के सम्बन्ध में यत्किचित्-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के अध्यवसाय असंख्यात बताए हैं। वे अध्यवसाय प्रशस्त, अप्रशस्त दोनों प्रकार के असंख्यात होते रहते हैं। प्रत्येक समय में पृथक-पृथक संख्यातीत अध्यवसाय लगातार होते हैं।' पंचम सम्यक्त्वाभिगमद्वार 2046. रइया णं भंते ! कि सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी सम्मामिच्छत्ताभिगमी ? गोयमा ! सम्मत्ताभिगमी वि मिच्छत्ताभिगमी वि सम्मामिच्छत्ताभिगमी वि। [2046] भगवन् ! नारक सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं, अथवा मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, या सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते है ? 2046 उ.] गौतम ! वे सम्यक्त्वाभिगमी भी हैं, मिथ्यात्वाभिगमी भी हैं और सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी भी होते हैं। 2050. एवं जाव वेमाणिया। गवरं एगिदिय-विलिदिया णो सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्ताभिगमी, णो सम्मामिच्छत्ताभिगमी। [2050] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त. जानना चाहिए। विशेष यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, वे न तो सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं और न ही सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं। विवेचन-पंचमद्वार का प्राशय-प्रस्तुत द्वार में नारक अादि चौवीस दण्डकों के विषय में सम्यक्त्वाभिगमी (अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वाले), मिथ्यात्वाभिगमी (अर्थात् मिथ्यादृष्टि की प्राप्ति वाले) अथवा सम्यगमिथ्यात्वाभिगमी (अर्थात् मिश्रदृष्टि वाले) हैं, ये प्रश्न हैं। एकेन्द्रिय मिथ्याभिगामी ही क्यों ?–एकेन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते, इसलिए वे केवल मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। किसी-किसी विकलेन्द्रिय में सास्वादन सम्यक्त्व पाया जाता है, तथापि अल्पकालिक होने से यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है, क्योंकि वे मिथ्यात्व की ओर ही अभिमुख होते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 446 (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयोधिनी टीका), भा. 5, .841 2. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5 पृ. 842 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र 546 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org