Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन-चौवीसदण्डकवर्ती जीवों द्वारा प्रहार्यमाण पुद्गलों के जानने-देखने पर- यहाँ विचार किया गया है / नीचे एक तालिका दी जा रही है, जिससे आसानी से जाना जा सके१. नैरयिक जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं नहीं जानते, न देखते, आहार करते हैं भवनपति वाणव्यन्तर ज्योतिष्क एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय 2. चतुरिन्द्रिय जीव (1) कई जानते, देखते, आहार करते हैं। (2) कई जानते हैं, देखते नहीं, आहार करते हैं। 3. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य (1) कई जानते, देखते व आहार (3) कई जानते नहीं, देखते हैं करते हैं। और आहार करते हैं। (2) कई जानते हैं, देखते नहीं, (4) न देखते, न जानते, और आहार करते हैं। आहार करते हैं। 4. वैमानिक देव (1) कई जानते, देखते और आहार (2) कई नहीं जानते, नहीं करते हैं। देखते, आहार करते हैं।' स्पष्टीकरण नैरयिक और भवनपतिदेव एवं एकेन्द्रिय आदि जीव जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, उन्हें नहीं जानते, क्योंकि उनका लोमाहार होने से अत्यन्त सूक्ष्मता के कारण उनके ज्ञान का विषय नहीं होता। वे देखते भी नहीं। क्योंकि वह दर्शन का विषय नहीं होता। अज्ञानी होने के कारण द्वीन्द्रिय सम्यग्ज्ञान से रहित होते हैं, अतएव उन पुद्गलों को भी वे नहीं जानते-देखते / उनका मति-अज्ञान भी इतना अस्पष्ट होता है कि स्वयं जो प्रक्षेपाहार वे ग्रहण करते हैं, उसे भी नहीं जानते / चक्षुरिन्द्रिय का अभाव होने से वे उन पुद्गलों को देख भी नहीं सकते। चतुरिन्द्रिय के दो भंग-कोई चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुद्गलों को जानते नहीं, किन्तु देखते हैं, क्योंकि उनके चक्षुरिन्द्रिय होती है और आहार करते हैं / किन्हीं चतुरिन्द्रिय के आँख होते हुए भी अन्धकार के कारण उनके चक्षु काम नहीं करते, अतः वे देख नहीं पाते, किन्तु आहार करते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के विषय में आहार्य पुद्गलों को जानने-देखने के सम्बन्ध में चार भंग पाए जाते हैं। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 420 2. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 545 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका सहित) भा. 5, प. 833-834 3. (क) वही, भा. 5, पृ. 835 से 839 (ख) प्रज्ञापना. मलयगिरिवृत्ति, पत्र 545 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org