Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ चौतीसवां परिधारणापद] (205 [2042 उ.] गौतम ! कई चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुदगलों को नहीं जानते, किन्तु देखते हैं और कई चतुरिन्द्रिय न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु पाहार करते हैं। 2043. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रत्येगइया जाणंति पासंति आहारति 1 अत्थेगइया जाणंति न पासंति आहारेंति 2 अत्थेगइया ण जाणंति पासंति प्राहारेंति 3 अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारति 4 / [2043 प्र.] पंचेन्द्रियतिर्यंचों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न / (2043 उ.] गौतम ! कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यञ्च (पाहार्यमाण पुद्गलों को) जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं 1, कतिपय जानते हैं, देखते नहीं और आहार वरते हैं, 2, कतिपय जानते नहीं देखते हैं और पाहार करते हैं 3, कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च न तो जानते हैं और न ही देखते हैं, किन्तु प्रहार करते हैं 4 / 2044. एवं मणूसाण वि। [2044] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में (जानना चाहिए।) 2045. वाणमंतर-जोतिसिया जहा रइया (सु. 2040) / [2045] वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों का कथन नै रयिकों के समान (समझना चाहिए / ) 2046. वेमाणियाणं पुच्छा। मोयमा ! प्रत्थेगइया जाणंति पासंति प्राहारेंति 1 अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति 2 / __ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति अत्थेगइया जाणंति पासंति प्राहारेंति प्रत्येगइया ण जाणंति ण पासंति प्राहारेति ? गोयमा ! वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--माइमिच्छद्दिट्टिउववण्णगा य अमाइसम्मदिविउववण्णगा य, एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे भणियं (सु. 668) तहा भाणियन्वं जाव से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चतिः। [2046 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उनको जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं ? अथवा वे न जानते हैं, न देखते हैं और पाहार करते हैं ? [2046 उ.] गौतम ! (1) कई वैमानिक जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं और (2) कई न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु प्रहार करते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि (1) कई वैमानिक (आहार्यमाण पुद्गलों को) जानते-देखते हैं और पाहार करते हैं और (2) कई वैमानिक उन्हें न तो जानते हैं, न देखते हैं किन्तु आहार करते हैं ? [उ.] गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा---मायी मिध्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / इस प्रकार जैसे (सू. 668 में उक्त) प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक में कहा है, वैसे ही यहाँ सब यावत् ---'इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है', यहाँ तक कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org