Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 204] [प्रज्ञापनासून [2038 उ.] गौतम ! उनका आहार आभोग-निवर्तित भी होता है और अनाभोग-निर्वर्तित भी होता है। 2036. एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं / णवरं एगिदियाणं णो प्राभोगणिव्वत्तिए, अणाभोगणिव्वत्तिए। _ [2036] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का आहार आभोगनिर्वतित नहीं होता, किन्तु अनाभोगनिवर्तित होता है। विवेचन -प्राभोगनिवर्तित और प्रनामोगनिवर्तित का स्वरूप-यद्यपि आहारपद (28 वाँ पद) में इन दोनो प्रकार के प्राहारों की चर्चा की गई है और आहार-सम्बन्धी यह चर्चा भी उसी पद में होनी चाहिए थी, परन्तु परिचारणा के पूर्व की प्रक्रिया बताने हेतु प्राभोग-अनाभोगनितितता की चर्चा की गई गई है। वत्तिकार प्राचार्य मलयगिरि ने मन:प्रणिधानपर्वक ग्रहण किये जाने वाले आहार को प्राभोगनिर्वतित कहा है। इसलिए नारक आदि जब मनोयोगपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं, तब वह आभोगनिर्वतित होता है, और जब वे मनोयोग के बिना ही आहार ग्रहण करते हैं, तब अनाभोगनिवर्तित आहार यानी लोमाहार करते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में अत्यन्त अल्प और अपटु मनोद्रव्यलब्धि होती है, इसलिए पटुतम मनोयोग न होने के कारण उनके आभोगनिर्वर्तित आहार नहीं होता।' तृतीय पुद्गलज्ञानद्वार 2040. रइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए मेहंति ते कि जाणंति पासंति आहारेति ? उयाहु ण जाणंति ण पासंति प्राहारेंति ? गोयमा ! ण जाणंति ण पासंति, प्राहारेति / [2040 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन्हें जानते हैं, देखते हैं और उनका आहार करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हैं किन्तु पाहार करते हैं ? [2040 उ.] गौतम ! वे न तो जानते हैं और न देखते हैं, किन्तु उनका आहार करते हैं / 2041. एवं जाव तेइंदिया। [2041] इसी प्रकार (असुरकुमारादि से लेकर) यावत्-त्रीन्द्रिय तक (कहना चाहिए।) 2042. चरिदियाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रत्येगइया ण जाणंति पासंति प्राहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति माहारेति। [2042 प्र.] चतुरिन्द्रियजीव क्या अाहार के रूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों को जानते-देखते हैं, और आहार करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5 पृ.८३१-८३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org