Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 202] [प्रज्ञापनासूत्र [2033 उ.] हाँ, गौतम ! नैरयिक अनन्तराहारक होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है, तत्पश्चात् पर्यादानता और परिणामना होती है, तत्पश्चात् वे परिचारणा करते हैं और तब वे विकुर्वणा करते हैं। 2034. [1] असुरकुमारा णं भंते ! अणंतराहारा तो णिवत्तणया तओ परियाइयणया तो परिणामणया तो विउठवणया तो पच्छा परियारणया ? गोयमा ! असुरकुमारा अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया जाव तो पच्छा परियारणया। [2034-1 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार भी अनन्तराहारक होते हैं ? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है ? फिर वे क्रमशः पर्यादान, परिणामना करते हैं ? और तत्पश्चात् विकुर्वणा और फिर परिचारणा करते हैं ? / [2034-1 उ.] हाँ, गौतम ! असुरकुमार अनन्तराहारी होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है यावत् फिर वे परिचारणा करते हैं। [2] एवं जाव थणियकुमारा। [2034-2] इसी प्रकार की वक्तव्यता यावत् स्तनितकुमारपर्यन्त कहनी चाहिए / 2035. पुढविक्काइया गं भंते ! अणंतराहारा तमो णिवत्तणया तो परियाइयणया तो परिणामणया य तनो परियारणया ततो विउव्यणया ? हंता गोयमा ! तं चेव जाव परियारणया, णो चेव णं विउव्वणया। [2035 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक अनन्तराहारक होते हैं ? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है। तत्पश्चात् पर्यादानता, परिणामना, फिर परिचारणा और तब क्या विकुर्वणा होती है ? [2035 उ.] हाँ गौतम ! पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता यावत् परिचारणापर्यन्त पूर्ववत् कहनी चाहिए किन्तु वे विकुर्वणा नहीं करते / 2036. एवं आव चरिदिया। णवरं बाउक्काइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जेरइया (सु. 2033) / [2036] इसी प्रकार कथन यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त करना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिक जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों के विषय में (सू. 2033 में उक्त) नै रयिकों के कथन के समान जानना चाहिए / 2037. बाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. 2034) / [2037] वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों की वक्तव्यता असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान जाननी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org