________________ चउतीसइमं परियारणापयं चौतोसवाँ परिचारणापद चौतीसवें पद का अर्थाधिकार-प्ररूपण 2032. अणंतरागयत्राहारे 1 श्राहाराभोगणाइ य 2 / पोग्गला नेव जाणंति 3 अज्झवसाणा य ाहिया 4 // 223 // सम्मत्तस्स अभिगमे 5 तत्तो परियारणा य बोद्धब्बा 6 / काए फासे रूवे सद्दे य मणे य अप्पवहुं 7 // 224 // [2032 अर्थाधिकारप्ररूपक-गाथार्थ] (1) अनन्तरागत अाहार, (2) आहाराभोगता ग्रादि, (3) पुद्गलों को नहीं जानते, (4) अध्यवसान, (5) सम्यक्त्व का अभिगम, (6) काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित परिचारणा और (7) अन्त में काय आदि से परिचारणा करने वालों का अल्पबहुत्व, (इस प्रकार चौतीसवें पद का अर्थाधिकार) समझना चाहिए / / 223-224 / / / विवेचन-चौतीसवें पद में प्रतिपाद्य विषय-प्रस्तुत पद में दो संग्रहणीगाथाओं द्वारा निम्नोक्त विषयों की प्ररूपणा की गई है-(१) सर्वप्रथम नारक आदि अनन्तरागत-पाहारक हैं, इस विषय की प्ररूपणा है, (2) तत्पश्चात् उनका आहार आभोगजनित होता है या अनाभोगजनित ?, इत्यादि कथन है / (3) नारकादि जीव आहाररूप में गृहीत पुद्गलों को जानते-देखते हैं या नहीं ? इस विषय में प्रतिपादन है / (4) फिर नारकादि के अध्यवसाय के विषय में कथन है। (5) तत्पश्चात् नारकादि के सम्यक्त्वप्राप्ति का कथन है / (6) शब्दादि-विषयोपभोग की वक्तव्यता, तथा काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन सम्बन्धी परिचारणा का निरूपण है। (7) अन्त में, काय प्रादि से परिचारणा करने वालों के अल्प-बहुत्व की वक्तव्यता है।' प्रथम अनन्तराहारद्वार 2033. गेरइया गं भंते ! अणंतराहारा तो निव्वत्तणया ततो परियाइयणया ततो परिणामणया ततो परियारणया ततो पच्छा विउवणया ? हंता गोयमा ! मेरइया णं अणंतराहारा तो निव्वत्तणया ततो परियादियणता तम्रो परिणामणया तो परियारणया तो पच्छा विउवणया। [2033 प्र.] भगवन् ! क्या नारक अनन्त राहारक होते हैं ?, उसके पश्चात् (उनके शरीर की) निष्पत्ति होती है ? फिर पर्यादानता, तदनन्तर परिणामना होती है ? तत्पश्चात् परिचारणा करते हैं ? और तब विकुर्वणा करते हैं ? 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टाका), भा. 5, पृ. 817 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org