________________ प्राथमिक] [199 (1) अनन्तराहारद्वार, (2) आहाराभोगद्वार, (3) पुद्गलज्ञानद्वार, (4) अध्यवसानद्वार और (5) सम्यक्त्वाभिगमद्वार / इसके पश्चात् छठा परिचार णाद्वार प्रारम्भ होता है / परिचारणा को शास्त्रकार ने चार पहलुओं से प्रतिपादित किया है-(१) देवों के सम्बन्ध में परिचारणा की दृष्टि से निम्नलिखित तीन विकल्प सम्भव हैं, चौथा विकल्प सम्भव नहीं है / (1) सदेवीक सपरिचार देव (II) अदेवीक सपरिचार देव, (III) अदेवीक अपरिचार देव / कोई भी देव सदेवीक हो, साथ ही अपरिचार भी हो, ऐसा सम्भव नहीं। अतः उपर्युक्त तीन सम्भवित विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है(१) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान वैमानिक में देवियाँ होती हैं। इसलिए इनमें कायिकपरिचारण (देव-देवियों का मैथुनसेवन) होती है। (2) सनत्कुमारकल्प से अच्युतकल्प के वैमानिक देवों में अकेले देव ही होते हैं, देवियाँ नहीं होतीं, इसके लिए द्वितीय विकल्प है-उन विमानों में देवियां नहीं होती, फिर भी परिचारणा होती है। (3) किन्तु नौ ग्रैवेयक और अनुत्तरविमानों में देवी भी नहीं होती और वहाँ के देवों द्वारा परिचारणा भी नहीं होती। यह तीसरा विकल्प है। * जिस देवलोक में देवी नहीं होती, वहाँ परिचारणा कैसे होती है ? इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं--(१) सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में स्पर्श-परिचारणा, (2) ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में रूप-परिचारणा, (3) महाशुक्र और सहस्रारकल्प में शब्द-परिचारणा, (4) पानत-प्राणत तथा प्रारण-अच्युतकल्प में मनःपरिचारणा होती है। * कायपरिचारणा तब होती है, जब देवों में स्वतः इच्छा--मन की उत्पत्ति अर्थात काय परिचारणा की इच्छा होती है। और तब देवियाँ-अप्सराएँ मनोरम मनोज्ञ रूप तथा उत्तर वैक्रिय शरीर धारण करके उपस्थित होती हैं / * देवों की कायिक-परिचारणा मनुष्य के कायिक मैथुनसेवन के समान देवियों के साथ होती है। शास्त्रकार ने आगे यह भी बताया है कि देवों में शुक्र-पुद्गल होते हैं, वे उन देवियों में संक्रमण करके पंचेन्द्रियरूप में परिणत होते हैं तथा अप्सरा के रूप-लावण्यवर्द्धक भी होते हैं / यहाँ एक विशेष वस्तु ध्यान देने योग्य है कि देव के उस शुक्र से अप्सरा में गर्भाधान नहीं होता, क्योंकि देवों के वैक्रियशरीर होता है / उनकी उत्पत्ति गर्भ से नहीं, किन्तु औपपातिक है।' * जहाँ स्पर्श, रूप एवं शब्द से परिचारणा होती है, उन देवलोकों में देवियाँ नहीं होती। किन्तु देवों को जब स्पादि-परिचारणा की इच्छा होती है, तब अप्सराएँ (देवियाँ) विक्रिया करके स्वयं उपस्थित होती हैं / वे देवियाँ सहस्रारकल्प तक जाती हैं, यह खासतौर से ध्यान देने योग्य है। फिर वे देव क्रमशः (यथायोग्य) स्पर्शादि से ही सन्तुष्टि-तृप्ति अनुभव करते हैं / यही उनकी परिचारणा है : स्पर्शादि से परिचारणा करने वाले देवों के भी शुक्र-विसर्जन होता है। 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवति, पत्र 549 (ख) वही, केवल मेते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः। -पत्र 550-551 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org