________________ 198] [प्रज्ञापनासूत्र शरीरनिर्माण की प्रक्रिया से इस पद को प्रारम्भ किया है। चौवीस दण्डकवर्ती जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में प्राहार' लेने लगता है / तदनन्तर उसके शरीर की निष्पत्ति होती है / चारों ओर से युदगलों का ग्रहण होकर शरीर, इन्द्रियादि के रूप में परिणमन होता है। इन्द्रियाँ जब याहार से पुष्ट होती हैं तो उद्दीप्त होने पर जीव परिचारणा करता है, फिर विक्रिया करता है। देवो में पहले विक्रिया है फिर परिचारणा है / एकेन्द्रियों तथा विकलेन्द्रियों में परिचारणा है, विक्रिया नहीं होती है। परिचारणा में शब्दादि सभी विषयों का उपभोग होने लगता है / * आहार की चर्चा के पश्चात् आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित पाहार का उल्लेख किया है / प्रस्तुत में प्राभोगनिर्वतित का अर्थ वृत्तिकार ने किया है'मनःप्रणिधानपूर्वकमाहारं गृण्हन्ति' अर्थात् मनोयोगपूर्वक जो आहार ग्रहण किया जाए। अनाभोगनिवर्तित आहार का अर्थ है. इसके विपरीत जो आहार मनोयोगपूर्वक न किया गया हो / जैसे एकेन्द्रियों के मनोद्रव्यलब्धि पटु नहीं है, इसलिए उनके पटुतर आभोग (मनोयोग) नहीं होता। परन्तु यहाँ रसनेन्द्रिय वाले प्राणी के मुख होने से उसे खाने की इच्छा होती है इसलिए एकेन्द्रिय में अनाभोगनिर्वतित पाहार माना गया है। एकेन्द्रिय के सिवाय सभी जीव आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित दोनों प्रकार का आहार लेते हैं। * इसके पश्चात् ग्रहण किये हुए आहार्यपुद्गलों को कौन जीव जानता-देखता है, कौन नहीं ? इसकी चर्चा है। 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः' इस सूक्ति के अनुसार आहार का अध्यवसाय के साथ सम्बन्ध होने से यहाँ पाहार के बाद अध्यवसायस्थानों की चर्चा की गई है। चौवीस दण्डकों में प्रशस्त और अप्रशस्त अध्यवसायस्थान असंख्यात प्रकार के होते हैं। परिचारणा के साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का निकट सम्बन्ध है। यही कारण है कि षटखण्डागम में कर्म के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के अध्यवसायस्थानों को विस्तृत चचा है / * इसके पश्चात् चौवीस दण्डकों में सम्यक्त्वाभिगामी, मिथ्यात्वाभिगामी और सम्यग-मिथ्यात्वा भिगामी की चर्चा है / परिचारणा के सन्दर्भ में यह प्रतिपादन किया गया है, इससे प्रतीत होता है कि सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी का परिचारणा के परिणामों पर पृथक्-पृथक् असर पड़ता है / सम्यक्त्वी द्वारा की गई परिचारणा और मिथ्यात्वी द्वारा की गई परिचारणा के भावों में रात दिन का अन्तर होगा, तदनुसार कर्मबन्ध में भी अन्तर पड़ेगा। * यहाँ तक परिचारणा को पृष्ठभूमि के रूप में पांच द्वार शास्त्रकर ने प्रतिपादित किये हैं 1. पाणावणासुत्तं (प्रस्तावना) भा. 2, पृ. 145 2. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. 145 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 545 (ग) पण्णवणासुत्त भा. 2 (मू. पा. टि.) पृ. 146 3. (क) पग्णवणासुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना) पृ. 146-147 (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मू. पा. टि.) पृ. 146 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org