________________ 196] [प्रज्ञापनासूत्र है, उसे अनवस्थित कहते हैं। ये दोनों भेद प्रायः प्रतिपाती और अप्रतिपाती के समान लक्षण वाले हैं, किन्तु नाममात्र का भेद होने से दोनों को अपेक्षाकृत पृथक्-पृथक् बताया है।' निष्कर्ष नारकों तथा चारों जाति के देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों का अवधि पूर्वोक्त पाठ ही प्रकार का होता है। // प्रज्ञापना भगवती का तेतीसवाँ अवधिपद समाप्त / 00 1. कर्म ग्रन्थ भाग 1 (मरुधरकेसरी व्याख्या) भा. 1, पृ. 48 से 51 तक 2. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 415 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org