________________ चउतीसइमं परियारणापयं चौतीसवाँ परिचारणापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह चौतीसवाँ परिचारणापद है। इसके बदले किसी-किसी प्रति में प्रविचारणा शब्द मिलता है, जो तत्त्वार्थसूत्र' के 'प्रवीचार' शब्द का मूल है / इसलिए परिचारणा अथवा प्रवीचार दोनों शब्द एकार्थक हैं। * कठोपनिषद् में भी परिचार' शब्द का प्रयोग मिलता है। * प्रवीचार या परिचारणा दोनों शब्दों का अर्थ मैथुनसेवन, इन्द्रियों का कामभोग, कामक्रीड़ा, रति, विषयभोग आदि किया गया है / __ भारतीय साधकों ने विशेषत: जैनतीर्थकरों ने देवों को मनुष्य जितना महत्त्व नहीं दिया है। देव मनुष्यों से भोगविलास में, वैषयिक सुखों में आगे बढ़े हुए अवश्य हैं तथा मनमाना रूप बनाने में दक्ष हैं, किन्तु मनुष्यजन्म को सबसे बढ़कर माना है, क्योंकि विषयों एवं कषायों से मुक्ति मनुष्यजन्म में ही, मनुष्ययोनि में ही सम्भव है / 'माणुसं खु दुल्लह' कह कर भगवान महावीर ने इसकी दुर्लभता का प्रतिपादन यत्र-तत्र किया है। यही कारण है कि मनुष्यजीवन की महत्ता बताने के लिए देवजीवन में विषयभोगों की उत्कृष्टता तथा नौ ग्रेवेयकों एवं पांच अनुत्तरविमानों के देवों के अतिरिक्त अन्य देवों में विषयभोगों की तीव्रता का स्पष्टत: प्रतिपादन किया गया है। देवजीवन में उच्चकोटि के देवों को छोड़कर अन्य देव इन्द्रिय-विषयभोगों का त्याग कर ही नहीं सकते / उच्चकोटि के वैमानिक देव भले ही परिचाररहित और देवीरहित हों, किन्तु वे ब्रह्मचारी नहीं कहला सकते, क्योंकि उनमें चारित्र के परिणाम नहीं होते। जबकि मनुष्यजीवन में महावती-सर्वविरतिसाधक बनकर मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी अथवा अणुव्रती बन कर मर्यादित ब्रह्मचारी हो सकता है। इस पद में देवों की परिचारणा का विविध पहलुओं से प्रतिपादन है / यद्यपि प्रारम्भ में आहारसम्बन्धी वक्तव्यता होने से सहसा यह प्रतीत होता है कि आहारसम्बन्धी यह वक्तव्यता आहारपद में देनी चाहिए थी, परन्तु गहराई से समीक्षण करने पर यह प्रतीत होता है कि आहारसम्बन्धी वक्तव्यता यहाँ सकारण है / इसका कारण यह है कि परिचारणा या मैथुनसेवन का मूल आधार शरीर है, शरीर से सम्बन्धित स्पर्श, रूप, शब्द, मन, अंगोपांग, इन्द्रियाँ, शारीरिक लावण्य, सौष्ठव, चापल्य या वर्ण आदि हैं / इसीलिए शास्त्रकार ने सर्वप्रथम 1. 'कायप्रवीवारा प्रा ऐशानात्, शेषा, स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोद्वंयोः / - तत्त्वार्थ सूत्र 418, 9 प्रवीचारो-मैथनोपसेवनम / -सर्वार्थ सिद्धि 417 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org