Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ चौतीसवां परिचारणापद] [207 प्रक्षेपाहार की दृष्टि से चार भंग-(१) कोई जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य प्रक्षेपाहारी होते हैं, इसलिए इनमें जो सम्यग्ज्ञानी होते हैं, वे वस्तुस्वरूप के ज्ञाता होने के कारण प्रक्षेपाहार को जानते हैं तथा चक्षुरिन्द्रिय होने से देखते भी हैं और आहार करते हैं। यह प्रथम भंग हुआ। (2) कोई जानते हैं, देखते नहीं और आहार करते हैं। सम्यग्ज्ञानी होने से कोई-कोई जानते तो हैं, किन्तु अन्धकार आदि के कारण नेत्र के काम न करने से देख नहीं पाते। यह द्वितीय भंग हुअा। (3) कोई जानते नहीं हैं, किन्तु देखते हैं और पाहार करते हैं। कोई-कोई मिथ्याज्ञानी होने से जानते नहीं हैं, क्योंकि उनमें सम्यग्ज्ञान नहीं होता, किन्तु वे चक्षुरिन्द्रिय के उपयोग से देखते हैं / यह तृतीय भंग हुआ। (4) कोई जानते भी नहीं, देखते भी नहीं, किन्तु पाहार करते हैं। कोई मिथ्याज्ञानी होने से जानते नहीं तथा अन्धकार के कारण नेत्रों का व्याघात हो जाने के कारण देखते भी नहीं पर अाहार करते हैं / यह चतुर्थ भंग हुआ। लोमाहार की अपेक्षा से चार भंग-(१) कोई कोई तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्य विशिष्ट अवधिज्ञान के कारण लोमाहार को भी जानते हैं और विशिष्ट क्षयोपशम होने से इन्द्रियपटुता अति विशुद्ध होने के कारण देखते भी हैं और पाहार करते हैं। (2) कोई कोई जानते तो हैं, किन्तु इन्द्रियपाटव का अभाव होने से देखते नहीं है।।३) कोई जानते नहीं, किन्तु इन्द्रियपाटवयुक्त होने के कारण देखते हैं। (4) कोई मिथ्याज्ञानी होने से अवधिज्ञान के अभाव में जानते नहीं और इन्द्रियपाटव का अभाव होने से देखते भी नहीं पर पाहार करते हैं / वैमानिकों में दो भंग - (1) कोई जानते नहीं, देखते भी नहीं, किन्तु आहार करते हैं। जो मायो-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे नौ ग्रेवेयक देवों तक पाये जाते हैं, वे अवधिज्ञान से मनोमय आहार के योग्य पुद्गलों को जानते नहीं हैं, क्योंकि उनका विभंगज्ञान उन पुगलों को जानने में समर्थ नहीं होता और इन्द्रियपटुता के अभाव के कारण चक्षुरिन्द्रिय से वे देख भी नहीं पाते। (2) जो वैमानिक देव अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे भी दो प्रकार के होते हैं-अनन्तरोप क और परम्परोपपन्नक / इन्हें क्रमश: प्रथमसमयोत्पन्न और अप्रथमसमयोत्पन्न भी कह सकते हैं। अनन्तरोपपत्रक नहीं जानते और नहीं देखते हैं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न होने के कारण उनके अवधिज्ञान का तथा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग नहीं होता / परम्परोपपन्नकों में भी जो अपर्याप्त होते हैं, वे नहीं जानते और न ही देखते हैं, क्योंकि पर्याप्तियों की अपूर्णता के कारण उनके अवधिज्ञानानादि का उपयोग नहीं लग सकता / पर्याप्तकों में भी जो अनुपयोगवान् होते हैं, वे नहीं जानते, न ही देखते हैं। जो उपयोग लगाते हैं, वे ही वैमानिक आहार के योग्य पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार करते हैं। पांच अनुत्तरविमानवासी देव अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक ही होते हैं और उनके क्रोधादि कषाय बहुत ही मन्दतर होते हैं, या वे उपशान्तकषायी होते हैं, इसलिए अमायी भी होते हैं।' चतुर्थ अध्यवसायद्वार 2047. रइयाणं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता। 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 446 (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 841 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org