________________ 200] [प्रज्ञापनासूत्र वृत्तिकार ने इस विषय में स्पष्टीकरण किया है कि देव-देवी का कायिक सम्पर्क न होने पर भी दिव्य-प्रभाव के कारण देवी में शुक्र-संक्रमण होता है और उसका परिणमन भो उन देवियों के रूप-लावण्य में वृद्धि करने में होता है / प्रानत, प्राणत, पारण और अच्युतकल्प में केवल मन-(मन से) परिचारणा होती है / अतः उन-उन देवों की परिचारणा की इच्छा होने पर देवियाँ वहाँ उपस्थित नहीं होती, किन्तु वे अपने स्थान में रह कर ही मनोरम शृगार करती हैं, मनोहर रूप बनाती हैं और वे देव अपने स्थान पर रहते हुए ही मनःसन्तुष्टि प्राप्त कर लेते हैं, साथ हो अपने स्थान में रही हुई वे देवियाँ भी दिव्य-प्रभाव से अधिकाधिक रूप-लावण्यवती बन जाती हैं।' * प्रस्तुत पद के अन्तिम सप्तम द्वार में पूर्वोक्त सभी परिचारणामों की दृष्टि से देवों के अल्प बहुत्व की विचारणा की गई है। उसमें उत्तरोत्तर वृद्धिंगत कम इस प्रकार है,—(१) सबसे कम अपरिचारक देव हैं, (2) उनसे संख्यातगुणे अधिक मन से परिचारणा करने वाले देव हैं, (3) उनसे असंख्यातगुणा शब्द-परिचारक देव हैं, (4) उनकी अपेक्षा रूप-परिचारक देव असंख्यातगुणा हैं, (5) उनसे असंख्यातगुणा स्पर्श-परिचारक देव हैं और (6) इन सबसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। इसमें उत्तरोत्तरवृद्धि का विपरीतक्रम परिचारणा में उत्तरोत्तर सुखवृद्धि की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरणार्थ सबसे कम सुख कायपरिचारणा में है और फिर उत्तरोत्तर सुखवृद्धि स्पर्श-रूप-शब्द और मन से परिचारणा में है। सबसे अधिक सुख अपरिचारणा वाले देवों में है। वृत्तिकार ने यह रहस्योद्घाटन किया है। 1. (क) 'पुद्गल-संक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः / ' -प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 551 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयवोधिनी टीका), भा. 5 (ग) पण्णवणासुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. 1488 2. (क) पग्णवणासुतं, भा. 2 (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. 14 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 871 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org