Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चौतीसवां परिचारणापदां [203 विवेचन–अनन्तराहार से विकुर्वणा तक के क्रम की चर्चा-नारक आदि चौबीसदण्डकवर्ती जोवों के विषय में प्रथम द्वार में अनन्तराहार, निष्पत्ति, पर्यादानता, परिणामना, परिचारणा और विकुर्वणा के क्रम की चर्चा की गई है / ' अनन्तराहारक प्रादि का विशेष अर्थ-अनन्तराहारक-उत्त्पत्ति क्षेत्र में आने के समय ही आहार करने वाले / निर्वर्तना-शरीर की निष्पत्ति, पर्यादानता-आहार्य पुद्गलों को ग्रहण करना / परिणामना-गृहीत पुद्गलों को शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणत करना / परिचारणायथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग करना / विकुर्वणा-वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करना। प्रश्न का आशय यह है कि नारक प्रादि अनन्तराहारक होते हैं ? अर्थात-क्या उत्पत्तिक्षेत्र में पहुँचते ही समय के व्यवधान के बिना ही वे पाहार करते हैं ? तत्पश्चात् क्या उनके शरीर की निर्वर्तना-निष्पत्ति (रचना) होती है ? शरीरनिष्पत्ति के पश्चात् क्या अंग-प्रत्यंगों द्वारा लोमाहार आदि से पुद्गलों का पर्यादान-ग्रहण होता है ? फिर उन गृहीत पुद्गलों का शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणमन होता है ? परिणमन के बाद इन्द्रियाँ पुष्ट होने पर क्या वे परिचारणा करते हैं ? अर्थात्-यथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग होता है ? और फिर क्या वे अपनी वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करते हैं ? 2 उत्तर का सारांश-भगवान द्वारा इस क्रमबद्ध प्रक्रिया का 'हाँ' में उत्तर दिया गया है। किन्तु वायुकायिक को छोड़कर शेष एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों में विकुर्वणा नहीं होती, क्योंकि ये वैशियलब्धि नहीं प्राप्त कर सकते / दूसरी विशेष बात यह है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों, इन चारों प्रकार के देवों में विकुर्वणा पहले होती है, परिचारणा बाद में, जबकि नारकों आदि शेष जीवों में परिचारणा के पश्चात् विकुर्वणा का क्रम है। देवगणों का स्वभाव ही ऐसा है कि विशिष्ट शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा होने पर पहले वे अभीष्ट वैक्रिय रूप बनाते हैं, तत्पश्चात् शब्दादि का उपभोग करते हैं, किन्तु नैरयिक आदि जीव शब्दादि-उपभोग प्राप्त होने पर हर्षातिरेक से विशिष्टतम शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा के कारण विक्रिया करते हैं। इस कारण देवों की वक्तव्यता में पहले विक्रिया और बाद में परिचारणा का कथन किया गया है। द्वितीय आहाराभोगताद्वार 2038. रइयाणं भंते ! श्राहारे कि प्राभोगणिव्वत्तिए प्रणाभोगणिवत्तिए ? गोयमा ! आभोगणिव्वत्तिए वि प्रणाभोगणिध्वत्तिए वि। [2038 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का आहार आभोग-निर्वर्तित होता है या अनाभोगनिर्वतित ? 1. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 419 2. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5 पृ. 821 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 544 3. वही, मलयवृत्ति, पत्र 544 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org