________________ 10] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन--(१)कति-प्रकृतिद्वार-आठ कर्मप्रकृतियाँ और चौबीस दण्डकों में उनका सद्भावमूल कर्मप्रकृतियाँ पाठ प्रसिद्ध है / नारक से लेकर वैमानिक तक समस्त संसारी जीवों के भी आठ ही कर्मप्रकृतियाँ लगी हुई हैं। आठ कर्मप्रकृतियों का स्वरूप-(१) ज्ञानावरणीय-जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करे / सामान्य-विशेषात्मक वस्तु के विशेष अंश का ग्रहण करना ज्ञान है / उसे जो आवृत करे, वह ज्ञानावरणीय है। (2) दर्शनावरणीय--पदार्थ के विशेषधर्म को ग्रहण न करके सामान्य धर्म को ग्रहण करना 'दर्शन' है। जो आत्मा के दर्शनगुण को आच्छादित करे, वह दर्शनावरणीय है। (3) वेदनीय- जिस कर्म के कारण प्रात्मा सुख-दुःख का अनुभव करे। (4) मोहनीय----जो कर्म प्रात्मा को मूढ- सत्-असत् के विवेक से शून्य बनाता है। प्रायुकम-जो कर्म जीव को किसी न किसी भव में स्थित रखता है। नामकर्म-जो कर्म जीव के गतिपरिणाम आदि उत्पन्न करता है। गोत्रकर्म--जिस कर्म के कारण जीव उच्च अथवा नीच कहलाता है अथवा जिम कर्म के उदय से जीव प्रतिष्ठित कुल अथवा नीच-अप्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है / अन्तरायकर्म-जो कर्म जीव के और दानादि के बीच में व्यवधान अथवा विघ्न डालता है अथवा जो कर्म दानादि करने के लिए उद्यत जीव के लिये विघ्न उपस्थित करता है।' द्वितीय : कह बंधति (किस प्रकार बंध करता है) द्वार 1667. कहाणं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडोश्रो बंधइ ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं णियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणिज्ज कम्मं णियच्छति, सणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा ! एवं खलु जोवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ। [1667 प्र.] भगवन् ! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ? . [1667 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनावरणीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनमोहनीय कर्म को प्राप्त करता है / दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को निश्चय ही प्राप्त करता है और हे गौतम ! इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव निश्चय ही आठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है। 1668. कहाणं भंते ! रइए अट्ट कम्मपगडोश्रो बंधति ? गोयमा! एवं चेव / एवं जाव वेमाणिए। [1668 प्र.] भगवन् ! नारक आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ? [1668 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्वोक्त कथनवत्) जानना चाहिए। इसी प्रकार (असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिकपर्यन्त (समझना चाहिए / ) 1666. कहण्णं भंते ! जीवा अट्ट कम्मपगडीमो बंधंति ? गोयमा ! एवं चेव / एवं जाब वेमाणिया / 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग 5, पृ. 161 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org