Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 136] [प्रज्ञापनासूत्र मिथ्यादष्टियों में एकत्व की विवक्षा से सर्वत्र कदाचित् एक आहारक एक अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव और पृथ्वी कायिकादि एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियों में से प्रत्येक के बहुत प्राहारक बहुत अनाहारक, यह एक ही भंग पाया जाता है। इनके अतिरिक्त सभी स्थानों में पूर्ववत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए। यहाँ सिद्ध-सम्बन्धी प्रालापक नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध मिथ्यादृष्टि होते ही नहीं हैं।' ___ सम्यमिथ्यादष्टि में प्राहारकता या अनाहारकता-सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोड़कर आहारक होते हैं, क्योंकि संसारी जीव विग्रहगति में अनाहारक होते हैं। मगर सम्यगमिथ्यादृष्टि विग्रहगति में होती नहीं है, क्योंकि सम्यगमिथ्यादृष्टि की अवस्था में मृत्यु नहीं होती। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन यहाँ इसलिए नहीं करना चाहिए कि वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते / छठा : संयतद्वार 1810. [1] संजए णं भंते ! जीवे कि पाहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय पाहारए सिय प्रणाहारए / [1860-1 प्र.] भगवन् ! संयत जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1860-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / [2] एवं मणूसे वि। [1890-2] इसी प्रकार मनुष्य संयत का भी कथन करना चाहिए। [3] पुहत्तेण तियभंगो। [1890-3] बहुत्व की अपेक्षा से (समुच्चय जीवों और मनुष्यों में) तीन-तीन भंग (पाये जाते हैं।) 1861. [1] अस्संजए पुच्छा। गोयमा ! सिय पाहारए सिय अणाहारए। [1861-1 प्र.] भगवन् ! असंयत जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1861-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक भी होता है। [2] पुहत्तेणं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो / [1891-2] बहुत्व की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय छोड़ कर इनमें तीन भंग होते हैं / 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 513 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी भा. 5, 1657-58 2. वही, भा. 5, पृ. 657-58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org