________________ 182j [प्रज्ञापनासूत्र तंत्रादि से अथवा देवोपासना से होने वाला विशिष्ट ज्ञान भी अवधिज्ञान नहीं है, वह मतिज्ञान का ही विशिष्ट प्रकार है। अवधिज्ञान का स्वरूप कर्मग्रन्थ आदि में बताया गया है कि इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना प्रात्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान है / वह भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय (क्षायोपशमिक) के भेद से दो प्रकार का है। देवों और नारकों को यह जन्म से होता है और मनुष्यों एवं पचेन्द्रियतिर्यंचों को कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होता है / अवधिज्ञान के क्षेत्रगत विषय की चर्चा का सार यह है-नारक क्षेत्र की दृष्टि से कम से कम प्राधा गाऊ और अधिक से अधिक चार गाऊ तक जानता-देखता है / फिर एक-एक करके सातों ही नरकों के नारकों के अवधि क्षेत्र का निरूपण है, नीचे की नरक भूमियों में उत्तरोत्तर अवधिज्ञानक्षेत्र कम होता जाता है। भवनपति निकाय में असुरकुमार का अवधिक्षेत्र कम से कम 25 योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्र है। बाकी के नागकुमारादि का अवधिक्षेत्र उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्र है / पंचेन्द्रियतिर्यच का अवधिक्षेत्र जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समूद्र है। मनुष्य का उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र अलोक में भी लोकपरिमित असंख्यात लोक जितना है। वाणव्यन्तर का अवधिक्षेत्र नागकुमारवत् है। ज्योतिष्कदेवों का जघन्य असंख्यात द्वीपसमुद्र है। वैमानिक देवों के अवधिक्षेत्र की विचारणा में विमान से नीचे का, ऊपर का और तिरछे भाग का अवधिक्षेत्र बताया है। विमान पर उन-उन वैमानिक देवों अवधिक्षेत्र विस्तृत है। अनुत्तरौपपातिक देवों का अवधिक्षेत्र समग्र लोकनाडी-प्रमाण है। अवधिज्ञान का क्षेत्र की अपेक्षा से तप (डोंगी). पल्लक, भालर. पटह आदि के समान विविध प्रकार का प्राकार बताया है। आचार्य मलयगिरि ने उसका निष्कर्ष यह निकाला है कि भवनपति और व्यन्तर को ऊपर के भाग में, वैमानिकों को नीचे के भाग में तथा ज्योतिष्क और नारकों को तिर्यदिशा में अधिक विस्तृत होता है / मनुष्य और तिर्यञ्चों के अवधिज्ञान का प्राकार विचित्र होता है। __ बाह्य और प्राभ्यन्तर अवधि की चर्चा में बताया गया है कि नारक और देव अवधिक्षेत्र के अन्दर हैं, अर्थात्-उनका अवधिज्ञान अपने चारों ओर फैला हुआ है, तिर्यञ्च में वैसा नहीं है। मनुष्य अवधि-क्षेत्र में भी है और बाह्य भी है। इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान का प्रसार स्वयं जहाँ है, वहीं से हो, तो वह अवधि के अन्दर (अन्तः) माना जाता है, परन्तु अपने से विच्छिन्न प्रदेश में अवधि का प्रसार हो तो वह अवधि से बाह्य माना जाता है / सिर्फ मनुष्य को ही सर्वावधि सम्भव है, शेष सभी जीवों को देशावधि ही होता है। आगे के द्वारों में नारकादि जीवों में प्रानुगामिक-अनानुगामिक, हीयमान-वर्धमान, प्रतिपाती अप्रतिपाती तथा अवस्थित और अनवस्थित आदि अवधिभेदों की प्ररूपणा की गई है। * कुल मिलाकर अवधिज्ञान की सांगोपांग चर्चा प्रस्तुत पद में की गई है। भगवतीसूत्र एवं कर्म ग्रन्थ में भी इतनी विस्तृत विचारणा नहीं की गई है।' 07 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा 1 (मूलपाठ-टिप्पण) प्र. 415 से 418 तक (ख) पण्णवणासुतं भा. 2 (परिशिष्ट-प्रस्तावनादि) पृ. 140-141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org