________________ 184] [प्रज्ञापनासूत्र का वेदन होकर पृथक हो जाना क्षय है और जो उदयावस्था को प्राप्त नहीं है, उसके विपाकोदय को दूर कर देना-स्थगित कर देना, उपशम कहलाता है। जिस अवधिज्ञान में क्षयोपशम ही मुख्य कारण हो, वह क्षयोपशम-प्रत्यय या क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है।' किसे कौन-सा अवधिज्ञान और क्यों ?-भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान चारों जाति के देवों को तथा रत्नप्रभा आदि सातों नरकभूमियों के नारकों को होता है। प्रश्न होता है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है और नारकादि भव प्रौदयिक भाव में हैं, ऐसी स्थिति में देवों और नारकों को अवधिज्ञान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि वस्तुत: भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान भी क्षायोपशमिक ही है, किन्तु वह क्षयोपशम देव और नारक-भव का निमित्त मिलने पर अवश्यम्भावी होता है। जैसे—पक्षीभव में प्राकाशगमन की लब्धि अवश्य प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार देवभव और नारकभव का निमित्त मिलते ही देवों और नारकों को अवधिज्ञान की उपलब्धि अवश्यमेव हो जाती है। दो प्रकार के प्राणियों का अवधिज्ञान क्षायोपशमिक अर्थात्-क्षयोपशम-निमित्तक है, वह हैमनुष्यों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को। इन दोनों को अवधिज्ञान अवश्यम्भावी नहीं है, क्योंकि मनुष्यभव और तिर्यञ्चभव के निमित्त से इन दोनों को अवधिज्ञान नहीं होता, बल्कि मनुष्यों या तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में भी जिनके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाए, उन्हें ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। इसे कर्मग्रन्थ की भाषा में गुणप्रत्यय भी कहते हैं / यद्यपि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक ही हैं, तथापि पूर्वोक्त निमित्तभिन्नता के कारण दोनों में अन्तर है। द्वितीय : अवधि-विषय द्वार 1983. रइया णं भंते ! केवतियं खेतं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहणणं प्रद्धगाउयं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं श्रोहिणा जाणंति पासंति / [1983 प्र.] भगवन् ! नैरयिक अवधि (ज्ञान) द्वारा कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [1983 उ.] गौतम ! वे जघन्यत: प्राधा गाऊ ( गव्यूति) और उष्कृष्टत: चार गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1984. रयणप्पभापुढविणेरइया णं भंते ! केवतियं खेत्तं प्रोहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णणं अट्ठाई गाउआई, उक्कोसेणं चत्तारि गाउपाइं ओहिणा जाणंति पासंति / [1984 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? [1984 उ.] गौतम ! वे जघन्य साढ़े तीन गाऊ और उत्कृष्ट चार गाऊ (क्षेत्र) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ 780 (ख) पण्णवणामुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना)प. 140-141 2. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 780 से 784 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org