________________ तेतीसवाँ अवधिपद] [193 के मध्य में गत-स्थित हो / अर्थात् जिसकी स्थिति आत्मप्रदेशों के मध्य में हो / अथवा समस्त प्रात्मप्रदेशों में जानने का क्षयोपशम होने पर भी जिसके द्वारा औदारिक शरीर के मध्यभाग से जाना जाए वह भी मध्यगत कहलाता है / सारांश यह है कि जब अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अवधिज्ञानी के साथ सम्बद्ध होता है, तब वह प्राभ्यन्तर-अवधि कहलाता है तथा जब अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अवधिज्ञानी से सम्बद्ध नहीं रहता, तब वह बाह्यावधि कहलाता है।' नारक और समस्त जाति के देव भवस्वभाव के कारण अवधिज्ञान के अन्तः- मध्य में ही रहने वाले होते हैं, बहिर्वर्ती नहीं होते / उनका अवधिज्ञान सभी ओर के क्षेत्र को प्रकाशित करता है, इसलिए वे अवधि के मध्य में ही होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तथाविध भवस्वभाव के कारण अवधि के अन्दर नहीं होते, बाहर होते हैं। उनका अवधिस्पर्द्धकरूप होता है जो बीच-बीच में छोड़कर प्रकाश करता है, मनुष्य अवधि के मध्यवर्ती भी होते हैं, बहिर्वर्ती भी। पंचम देशावधि-सर्वावधिद्वार 2022. णेरइया णं भंते ! कि देसोही सवोही ? गोयमा ! देसोही, णो सम्वोही। [2022 प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधिज्ञान देशावधि होता है अथवा सर्वावधि ? [2022 उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं? 2023. एवं जाव थणियकुमाराणं। [2023] इसी प्रकार (का कथन) यावत् स्तनितकुमारों तक के विषय में (समझना चाहिए / ) 2024. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! देसोही, णो सब्वोही। [2024 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतियंञ्चों का अवधि देशावधि होता है या सर्वावधि ? [2024 उ.] गौतम ! वह देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं / 2025. मणूसाणं पुच्छा। गोयमा! देसोही वि सम्वोही वि / [2025 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों का अवधिज्ञान देशावधि होता है या सर्वावधि ? [2025 उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि भी होता है, सर्वावधि भी होता है / 2026. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. 2022) / [2026] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का (अवधि भी) (सू. 2022 में उक्त) नारकों के समान (देशावधि होता है।) विवेचन-देशावधि और सर्वावधि : स्वरूप एवं विश्लेषण-अवधिज्ञान तीन प्रकार का होता है सर्वजघन्य, मध्यम और सर्वोत्कृष्ट / इनमें से सर्वजघन्य और मध्यम अवधि को देशावधि कहते हैं 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 773 से 775 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 810 से 812 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org