________________ तेतीसर्वा अवधिपद [2] एवं जाव अच्चुयदेवाणं पुच्छा। [2014-2] इसी प्रकार यावत् अच्युतदेवों तक के अवधिज्ञान के आकार के विषय में समझना चाहिए। 2015. गेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! पुष्फचंगेरिसंठिए पण्णत्ते। [2015 प्र.] भगवन् ! ग्रेवेयकदेवों के अवधिज्ञान का प्राकार कैसा है ? [2015 उ.] गौतम ! वह फूलों की चंगेरी (छबड़ी या टोकरी) के प्राकार का है। 2016. अणुत्तरोववाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जवणालियासंठिए ओही पण्णत्ते / [2016 प्र.] भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देवों के अवधिज्ञान का आकार कैसा है ? [2016 उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान यवनालिका के आकार का कहा गया है / विवेचन--जीवों के अवधिज्ञान के विविध आकार–नारकों का तप्राकार, भवनपतिदेवों का पल्लकाकार, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का नाना आकार का, व्यन्तरदेवों का पटहाकार, ज्योतिष्कदेवो का झालर के आकार का, सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प के देवों का ऊर्ध्व मृदंगाकार, ग्रैवेयक देवों का पुष्पचंगेरी के आकार का और अनुत्तरौपपातिक देवों का यवनालिका के आकार का अवधिज्ञान है / वस्तुत: अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का प्राकार उपचार से अवधि का आकार कहा जाता है। कठिन शब्दों का अर्थ-तप्र-नदी के वेग में बहता हुआ, दूर से लाया हुआ लम्बा और तिकोना काष्ठविशेष अथवा लम्बी और तिकोनी नौका। पल्लक-लाढ़देश में प्रसिद्ध धान भरने का एक पात्रविशेष, जो ऊपर और नीचे की ओर लम्बा, ऊपर कुछ सिकुड़ा हुआ, कोठी के आकार का होता है / पटह-ढोल (एक प्रकार का बाजा), झल्लरी–झालर, एक प्रकार का बाजा, जो गोलाकार होता है, इसे ढपली भी कहते हैं। ऊर्ध्व-मदंग-ऊपर को उठा हा मृदंग जो नीचे विस्तीर्ण और ऊपर संक्षिप्त होता है। पुष्पचंगेरी-फूलों की चंगेरी, सूत से गूंथे हुए फूलों की शिखायुक्त चंगेरी / चंगेरी टोकरी या छबड़ी को भी कहते हैं / यवनालिका-कन्या की चोली / अवधिज्ञान के प्राकार का फलितार्थ यह है कि भवनपतियों और वाणव्यन्तरदेवों का अवधिज्ञान ऊपर की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है। ज्योतिष्कों और नारकों का तिरछा तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों का विविध प्रकार का होता है / पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का प्रवधिज्ञान--जैसे स्वयम्भूरमणसमुद्र में मत्स्य नाना आकार के होते हैं, वैसे ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में नाना आकार का होता है / वलयाकार भी होता है।' 1. (क) पण्णवणासुतं भाग 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), प्र. 417-418 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 806 से 810 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org