________________ तेतीसवाँ अवधिपद] [187 1966. वाणमंतरा जहा णागकुमारा (सु. 1662) / [1996] वाणव्यन्तर देवों की जानने-देखने को क्षेत्र-सीमा (सू. 1962 में उक्त) नागकुमारदेवों के समान जाननी चाहिए। 1967. जोइसिया णं भंते ! केवतियं खेत्तं प्रोहिणा जाणंति पासंति / गोयमा ! जहण्णेणं संखेज्जे दीव-समुद्दे, उक्कोसेण वि संखिज्जे दीव-समुद्दे / [1997 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्कदेव कितने क्षेत्र को अवधि(ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं ? [1997 उ.] गौतम ! वे जघन्य संख्यात द्वीप-समुद्रों (तक) को तथा उत्कृष्ट भी संख्यात द्वीप-समुद्रों (पर्यन्त-क्षेत्र) को (अवधिज्ञान से जानते-देखते हैं।) 1968. सोहम्मगदेवा णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं अहे जाव इसोसे रयणप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते, तिरियं जाव असंखेज्जे दोव-समुद्दे, उड्ढं जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासंति। [1998 प्र.] भगवन् ! सौधर्मदेव कितने क्षेत्र को अवधि (ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं ? [1998 उ.] गौतम ! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागक्षेत्र को और उत्कृष्टतः नीचे यावत् इस रत्नप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त तक, तिरछे यावत् असंख्यात द्वीप-समुद्रों (तक) और ऊपर अपने-अपने विमानों तक (के क्षेत्र) को अवधि(ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं / 1966. एवं ईसाणगदेवा वि। [1666] इसी प्रकार ईशानकदेवों के विषय में भी (कहना चाहिए / ) 2000. सणंकुमारदेवा वि एवं चेव / णवरं अहे जाव दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते। [2000] सनत्कुमार देवों की भी (अवधिज्ञानविषयक क्षेत्रमर्यादा) इसी प्रकार (पूर्ववत्) (समझना चाहिए।) किन्तु विशेष यह है कि ये नीचे यावत् दूसरी शर्कराप्रभा (नरक-)पृथ्वी के निचले चरमान्त तक जानते-देखते हैं। 2001. एवं माहिंदगदेवा वि। [2001] माहेन्द्रदेवों के विषय में भी इसी प्रकार (क्षेत्रमर्यादा समझनी चाहिए / ) 2002. बंभलोग-लंतगदेवा तच्चाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते। [2002] ब्रह्मलोक और लान्तकदेव (नीचे) तीसरी (बालुका-)पृथ्वी के निचले चरमान्त तक जानते-देखते हैं / शेष सब पूर्ववत् / 2003. महासुक्क-सहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेटिल्ले चरिमंते / [2003] महाशुक्र और सहस्रारदेव (नीचे) चौथी पंकप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त (तक जानते-देखते हैं / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org