________________ 180] [प्रज्ञापनासूत्र से निवृत्ति रूप संयतत्व घटित नहीं होता। सावधयोग में प्रवृत्ति न होने से असंयतत्व भी नहीं पाया जाता तथा दोनों का सम्मिलितरूप संयतासंयतत्व भी इसी कारण सिद्धों में नहीं पाया जाता / कौन संयत है, कौन असंयत है, कौन संयतासंयत है तथा कौन नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत है ?, इसकी प्ररूपणा मूलपाठ में कर ही दी गई है, अन्तिम संग्रहणी गाथा में निष्कर्ष दे दिया है / अतः स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है।' // प्रज्ञापना भगवती का बत्तीसवाँ संयतपद सम्पूर्ण // 00 1. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 414 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 768 से 771 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org