Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बत्तीसवाँ संयतपद [179 1979. मणसा णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा ! मणसा संजया वि असंजया वि संजतासंजया वि, णो णोसंजतणोअसंजय-जो-संजतासंजता। [1678 प्र.] भगवन् ! मनुष्य संयत होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1978 उ.] गौतम ! मनुष्य संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं, किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नहीं होते हैं / 1676. वाणमंतर-जोति सिय-वेमाणिया जहा गेरइया (सु. 1975) / [1976] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए। 1980. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा नो संजया नो असंजया नो संजयासंजया, णोसंजयणोप्रसंजयणोसंजयासंजया। संजय अस्संजय मीसगा य जीवा तहेव मणुया य / संजतरहिया तिरिया, सेसा अस्संजता होंति // 221 // ॥पण्णवणाए भगवतीए बत्तीसइमं संजयपयं समत्तं / / [1980 प्र.] सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1980 उ.] गौतम ! सिद्ध न तो संयत होते हैं, न असंयत और न ही संयतासंयत होते हैं, किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं। [संग्रहणी-गाथार्थ- जीव और मनुष्य संयत, असंयत और संयतासंयत (मिश्र) होते हैं। तिर्यञ्च संयत नहीं होते, (किन्तु असंयत और संयतासंयत होते हैं)। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और देव (चारों जाति के) तथा नारक असंयत होते हैं / / 22 / / _ विवेचन संयत एवं असंयत पद का लक्षण-जो सर्वसावद्ययोगों से सम्यक् प्रकार से विरत हो चुके हैं और चारित्रपरिणामों की वृद्धि के कारणभूत निरवद्य योगों में प्रवृत्त हुए हैं, वे संयत कहलाते हैं / अर्थात्--हिंसा आदि पापस्थानों से जो सर्वथा निवृत्त हो चुके हैं, वे संयत हैं / उनसे विपरीत असंयत हैं। संयतासंयत-जो हिंसादि से देश (यांशिकरूप) से विरत हैं / नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत-जो इन तीनों से भिन्न हैं / जीव में चारों का समावेश : कैसे ?--जीव संयत भी होते हैं, क्योंकि श्रमण संयत हैं। जीव असंयत भी होते हैं, क्योंकि नारकादि असंयत हैं / जीव संयतासंयत भी होते हैं, क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य स्थूल प्राणातिपात ग्रादि का त्याग करके देशसंयम के अाराधक होते हैं तथा जीव नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत भी होते हैं, क्योंकि सिद्धों में इन तीनों का निषेध पाया जाता है। सिद्ध भगवान् शरीर और मन से रहित होते हैं / अतएव उनमें निरवद्ययोग में प्रवृत्ति और सावधयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org