________________ 144] [प्रजापनासूत्र बारहवाँ : शरीरद्वार 1903. [1] ससरीरी जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। में (बहुत्वापेक्षया) तीन भंग पाये जाते हैं / [2] पोरालियसरीरीसु जीव-मणूसेसु तियभंगो / [1903-2] औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं / [3] अवसेसा पाहारगा, णो अणाहारगा, जेसि अस्थि ओरालियसरीरं। [1903-3] शेष जीवों और (मनुष्यों से भिन्न) औदारिकशरीरी ग्राहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु जिनके प्रौदारिकशरीर होता है, उन्हीं का कथन करना चाहिए। [4] वेउब्वियसरीरी आहारगसरीरी य पाहारगा, णो अणाहारगा, जेसि अस्थि / [1903-4] वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु यह कथन जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है, उन्हीं के लिए है। [5] तेय-कम्मगसरीरी जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1903-5] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तैजसशरीर और कार्मणशरीर वाले जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं। [6] असरीरी जीवा सिद्धा य णो श्राहारगा, अणाहारगा। दारं 12 // [1903-6] अशरीरी जीव और सिद्ध पाहारक नहीं होते, अनाहारक होते हैं। [बारहवाँ द्वार ] विवेचन-शरीरद्वार के आधार से प्ररूपणा-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष सशरीरी जीवों में बहुत्व की विवक्षा से तीन भंग और एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र एक ही भंग पाया जाता है—कदाचित् एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक / समुच्चय सशरीरी जीवों और एकेन्द्रियों में बहुत अाहारक बहुत अनाहारक, यह एक भंग पाया जाता है। औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग तथा इनसे भिन्न औदारिकशरीरी भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के औदारिकशरीर नहीं होता, अतः उनके लिए यह कथन नहीं है। बहत्व की अपेक्षा से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में बहुत आहारक ही कहना चाहिए, अनाहारक नहीं, क्योंकि विग्रहगति होने पर भी उनमें औदारिकशरीर का सद्भाव होता है। वैक्रियशरीरी और पाहारकशरीरी आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं। परन्तु यह कथन उन्हीं के लिए है, जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है / नारकों और वायुकायिकों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org