Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रज्ञापनासूत्र श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति एवं भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्तक) नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं। शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते है। 1906. भासा-मणपज्जत्तीए (ज्जत्तएसु) जीवेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु य तियभंगो, रइय-देव-मणुएसु छन्भंगा। [1906] भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में (बहुत्व की विवक्षा से) तीन भंग पाये जाते हैं। (पूर्वोक्त पर्याप्ति से अपर्याप्त) नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं। 1907. सव्वपदेसु एगत्त-पुहत्तेणं जीवादीया दंडगा पुच्छाए भाणियव्वा / जस्स जं अस्थि तस्स तं पुच्छिज्जति, जं णस्थि तं ण पुच्छिज्जति जाव भासा-मणपज्जत्तीए अपज्जत्तएसु रइय-देवमणुएसु य छन्भंगा / सेसेसु तियभंगो। दारं 13 // // बोनो उद्देसनो समत्तो॥ ॥पण्णवणाए भगवतीए अट्ठावीसइमं प्राहारपयं समत्तं // [1907] सभी (13) पदों में एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से जीवादि दण्डकों में (समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डक) के अनुसार पृच्छा करनी चाहिए। जिस दण्डक में जो पद संभव हो, उसी की पृच्छा करनी चाहिए / जो पद जिसमें सम्भव न हो उसकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। (भव्यपद से लेकर) यावत् भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंगों की वक्तव्यता पर्यन्त तथा नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में तीन भंगों को वक्तव्यतापर्यन्त समभ.ना चाहिए। [ तेरहवाँ द्वार ] विवेचन–पर्याप्तिदार के आधार पर प्राहारक-अनाहारकप्ररूपणा-यद्यपि अन्य शास्त्रों में पर्याप्तियाँ छह मानी गई हैं, परन्तु यहाँ भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति गेनों का एक में समावेश करके पांच ही पर्याप्तियाँ मानी गई हैं। ___ आहारादि पांत्र पर्याप्तियों से पर्याप्त समुच्चय जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग पाये जाते हैं, इन दो के सिवाय दूसरे जो पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हैं, वे अाहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में भाषा-मन:पर्याप्ति नहीं पाई जाती। __आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होता है, आहारक नहीं, क्योंकि आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव विग्रहगति में ही पाया जाता है। उपपातक्षेत्र में आने पर प्रथम समय में हो वह आहारपर्याप्ति से पर्याप्त हो जाता है। अतएव प्रथम समय में वह आहारक नहीं कहलाता / बहुत्व की विवक्षा में बहुत अनाहारक होते हैं। शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव कदाचित् प्राहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। जो विग्रगति-समापन्न होता है, वह अनाहारक और उपपातक्षेत्र में आ पहुँचता है, वह पाहारक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org