________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [145 पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों तथा चारों जाति के देवों के ही वैक्रियशरीर होता है। आहारकशरीर केवल मनुष्यों के ही होता है। तेजसशरीरी एवं कार्मणशरीरी जीवों में एकत्वापेक्षया सर्वत्र कदाचित् 'एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक' यह एक भंग होता है / बहुत्वापेक्षया--समुच्चय जीवों और एकेन्द्रिय को छोड़ कर अन्य स्थानों में तीन-तीन भंग जानने चाहिए। समुच्चय जीवों और पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों में से प्रत्येक में एक ही भंग पाया जाता है-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक / ___ अशरीरी जीव और सिद्ध पाहारक नहीं होते, अपितु अनाहारक ही होते हैं / अतएव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अशरीरी सिद्ध ग्रनाहारक ही होते हैं।' तेरहवाँ : पर्याप्तिद्वार 1904. [1] पाहारपज्जत्तीपज्जत्तए सरीरपज्जत्तीपज्जत्तए इंदियपज्जत्तीपज्जत्तए प्राणापाणुपज्जत्तीपज्जत्तए भासा-मणपज्जत्तीपज्जत्तए एयासु पंचसु वि पज्जत्तीसु जीवेसु मणूसेसु य तियभंगो। [1904.1] अाहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा-मनःपर्याप्ति इन पांच (छह) पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं। [2] अवसेसा पाहारगा, णो प्रणाहारगा। [1904-2] शेष (समुच्चय जीवों और मनुष्यों के सिवाय पूर्वोक्त पर्याप्तियों से पर्याप्त) जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं / [3] भासा-मणपज्जत्ती पंचेंदियाणं, अवसेसाणं णस्थि / [1904-3] विशेषता यह है कि भाषा-मन:पर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है, अन्य जीवों में नहीं। 1905. [1] पाहारपज्जत्तीअपज्जत्तए णो आहारए, अणाहारए, एगत्तेण वि पुहत्तण वि / [1605-1] आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा आहारक नहीं होते, वे अनाहारक होते हैं। [2] सरोरपज्जत्तोप्रपज्जत्तए सिय आहारए सिय प्रणाहारए। [1605-2] शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व की अपेक्षा कदाचित् आहारक, कदाचित् अनाहारक होता है। [3] उवरिल्लियासु चउसु अपज्जत्तोसु रइय-देव-मणूसेसु छन्भंगा, अवसेसाणं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1905-3] आगे की (अन्तिम) चार अपर्याप्तियों वाले (शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5. पृ. 683-684 (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. ग. कोप, भा. 2,1. 515 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org