Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 168 [प्रज्ञापनासूत्र [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! जो अनाकार होता है, वह दर्शन (देखना) होता है और साकार होता है, वह ज्ञान (जानना) होता है / इस अभिप्राय से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से""यावत् देखते हैं, जानते नहीं। इसी प्रकार (अनाकारों से यावत अप्रत्यवतारों से शेष छहों नरकवियों, वैमानिक देवों के विमानों) यावत् ईषत्प्रारभारापृथ्वी, परमाणुपुदगल तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को केवली देखते हैं, किन्तु जानते नहीं, (यह कहना चाहिए / ) विवेचन- केवली के द्वारा ज्ञान और दर्शन के समकाल में न होने की चर्चा--(१) इस प्रश्न के उठने का कारण-छद्मस्थ जीव तो कर्मयुक्त होते हैं, अत: उनका साकारोपयोग और अनाकारोपयोग क्रम से ही प्रादुर्भूत हो सकता है, क्योंकि कर्मों से प्रावृत जीवों के एक उपयोग के समय, दूसरा उपयोग कर्म से आवृत हो जाता है। इस कारण दो उपयोगों का एक साथ होना विरुद्ध है। अत: जिस समय छद्मस्थ जानता है, उसी समय देखता नहीं है, किन्तु उसके बाद ही देख सकता है / मगर केवली के चार घातिक कर्मों का क्षय हो चुका है। अतः ज्ञानावरणीय कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनको ज्ञान और दर्शन दोनों एक साथ होने में कोई विरोध या बाधा नहीं है। ऐसी आशंका से गौतमस्वामी द्वारा यह प्रश्न उठाया गया कि क्या केवली रत्नप्रभा ग्रादि को जिस समय जानते हैं, उसी समय देखते हैं अथवा जीव-स्वभाव के कारण क्रम से जानते-देखते हैं ?' प्रागारेहि प्रादि पदों का स्पष्टीकरण-(१) प्रागारहि केवली भगवान इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अर्थात आकार-प्रकारों से यथा यह रत्नप्रभापृथ्वी खरकाण्ड, पंककाण्ड और अकाण्ड के भेद से तीन प्रकार की है। खरकाण्ड के भी सोलह भेद हैं। उनमें से एक सहस्रयोजन प्रमाण रत्नकाण्ड है, तदनन्तर एक सहस्रयोजन-परिमित वनकाण्ड है, फिर उसके नीचे सहस्रयोजन का वैडूर्यकाण्ड है, इत्यादि रूप के प्राकार-प्रकारों से समझना। (2) हेहिं-हेतुओं से अर्थात् उपपत्तियों से-युक्तियों से / यथा इस पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा क्यों है ? युक्ति प्रादि द्वारा इसका समाधान यह है कि रत्नमयकाण्ड होने से या रत्न की ही प्रभा या स्वरूप होने से अथवा रत्नमयकाण्ड होने से उसमें रत्नों की प्रभाकान्ति है, अत: इस पृथ्वी का रत्नप्रभा नाम सार्थक है। (3) उवमाहि-उपमाओं से अर्थात् सदृशताओं से। जैसे कि-वर्ण से पद्मराग के सदृश रत्नप्रभा में रत्नप्रभ आदि काण्ड हैं, इत्यादि / (4) दिळेंतेहि - दृष्टान्तों-उदाहरणों से या वादी-प्रतिवादी की बुद्धि समता-प्रतिपादक वाक्यों से / जैसे-घट, पट आदि से भिन्न होता है, वैसे ही यह रत्नप्रभापृथ्वी शर्कराप्रभा आदि अन्य नरकपथ्वियों से भिन्न है, क्योंकि इसके धर्म उनसे भिन्न हैं। इसलिए रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि से भिन्न वस्तु है, इत्यादि / (5) वण्णेहि-वर्ण-गन्धादि के भेद से / शुक्ल आदि वर्गों के उत्कर्ष-अपकर्षरूप संख्यातगुण, असंख्यातगुण और अनन्तगुण के विभाग से तथा गन्ध, रस और स्पर्श के विभाग से / (6) संठाणेहि-संस्थानों-आकारों से अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी में बने भवनों और नरकावासों की रचना के आकारों से। जैसे-वे भवन बाहर से गोल और अन्दर से 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनीटीका) भा. 5, पृ. 747-748 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org