________________ तीसवां पश्यत्तापद] [169 चौकोर हैं, नीचे पुष्कर को कणिका को प्राकृति के हैं / इसी प्रकार नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोर हैं और नीचे क्षरप्र (खरपा) के आकार के हैं, इत्यादि / (7) पमाणेहि-प्रमाणों से अर्थात् उसकी लम्बाई, मोटाई, चौड़ाई प्रादिरूप परिमाणों से। जैसे-वह एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली तथा रज्जु-प्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाली है, इत्यादि / (8) पडोयारेहि-प्रत्यवतारों से अर्थात् पूर्ण रूप से चारों ओर से व्याप्त करने वाले पदार्थों (प्रत्यवतारों) से / जैसे-घनोदधि आदि वलय सभी दिशाओं-विदिशानों में व्याप्त करके रहे हुए हैं, अतः वे प्रत्यवतार कहलाते हैं। इस प्रकार के प्रत्यवतारों से जानना।' प्रथम प्रश्न का तात्पर्य-क्या केवली भगवान् पूर्वोक्त आकारादि से रत्नप्रभादि को जिस समय केवलज्ञान से जानते हैं, उसी समय केवलदर्शन से देखते भी हैं तथा जिस समय वे केवलदर्शन से देखते हैं, क्या उसी समय केवलज्ञान से जानते भी हैं ? उत्तर का स्पष्टीकरण उपयुक्त प्रश्न का उत्तर 'ना' में है / क्योंकि केवली भगवान् का ज्ञान साकार अर्थात् विशेष का ग्राहक होता है, जबकि उनका दर्शन अनाकार अर्थात् सामान्य का ग्राहक होता है। अतएव केवली भगवान् जब ज्ञान के द्वारा विशेष का परिच्छेद करते हैं, तब जानते हैं, ऐसा कहा जाता है और जब दर्शन के द्वारा अनाकार यानी सामान्य को ग्रहण करते हैं, तब देखते हैं, ऐसा कहा जाता है / सविशेष पुनर्ज्ञानम् इस लक्षण के अनुसार वस्तु का विशेषयुक्त बोध या विशेषग्राहक बोध ही ज्ञान होता है। अतः केवली का ज्ञान साकार यानी विशेष का ही ग्राहक होता है, अन्यथा उसे ज्ञान ही नहीं कहा जा सकता और दर्शन अनाकार यानी सामान्य का हो ग्राहक होता है, क्योंकि दर्शन का लक्षण ही है—'पदार्थों को विशेषरहित ग्रहण करना।' अत: सिद्धान्त यह है कि जब ज्ञान होता है, तब ज्ञान ही होता है और जब दर्शन होता है, तब दर्शन ही होता है। ज्ञान और दर्शन छाया और आतप (धूप) के समान साकाररूप एवं अनाकाररूप होने से परस्पर विरोधी हैं। ये दोनों एक साथ उपयुक्त नहीं रह सकते। अतएव केवली जिस समय जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं। जीव के कतिपय प्रदेशों में ज्ञान हो और कतिपय प्रदेशों में दर्शन हो, इस प्रकार एक ही साथ खण्डश: ज्ञान और दर्शन सम्भव नहीं है। सातों नरकपृथ्वियों, अनुत्तरविमान तक के विमानों, ईषत्प्रारभारापृथ्वी, परमाणु, द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में यही सिद्धान्त पूर्वोक्त युक्तिपूर्वक समझ लेना चाहिए। द्वितीय प्रश्न का तात्पर्य केवली जिस समय इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अनाकारों (आकार-प्रकाररहित रूप) इत्यादि से क्या केवल देखते ही हैं, जानते नहीं हैं ? उत्तर का स्पष्टीकरण-भगवान् इसे 'हाँ' रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि अनाकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करना दर्शन का कार्य है, ज्ञान का नहीं। ज्ञान का कार्य साकार आदि रूप में ग्रहण करना है / स्पष्ट शब्दों में कहें तो केवल अनाकार आदि रूप में जब रत्नप्रभादि को सामान्य 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 748 से 751 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 751 से 753 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org