________________ 172] [प्रज्ञापनासूत्र __ पाचारांगसूत्र के प्रारम्भ में पूर्वभव के ज्ञान के प्रसंग में', अर्थात् विशेष प्रकार के मतिज्ञान के अर्थ में संज्ञा शब्द प्रयुक्त किया गया है / इसी प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध में जहाँ दस चित्तसमाधि-स्थानों का वर्णन है, वहाँ अपने पूर्व जन्म के स्मरण करने के अर्थ में संज्ञा शब्द का प्रयोग किया गया है।" इससे प्रतीत होता है कि संज्ञा शब्द पहले मतिज्ञान-विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ होगा, कालक्रम से यह पूर्व-अनुभव के स्मरण या जातिस्मरण ज्ञान के अर्थ में व्यवहृत होने लगा होगा / जो भी हो, संज्ञा शब्द है तो मतिज्ञान-विशेष ही, फिर वह संज्ञा-संकेत-शब्द रूप में हो या चिह्नरूप में हो। उससे ज्ञान होने में स्मरण आवश्यक है। स्थानांगसूत्र में भी ‘एगा सन्ना' ऐसा पाठ मिलता है। इसलिए प्राचीनकाल में संज्ञा नाम का कोई विशिष्ट ज्ञान तो प्रसिद्ध था ही। आवश्यक नियुक्ति में भी संज्ञा को अभिनिबोध (मतिज्ञान) कहा है। 'षटखण्डागम' मूल के मार्गणाद्वार में संज्ञीद्वार है। परन्तु वहाँ संज्ञा का वास्तविक अर्थ क्या है?, यह नहीं बताया गया है। वहाँ संज्ञी-प्रसंज्ञी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक के जीव संज्ञी हैं तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव असज्ञी हैं। फिर यह भी कहा है कि संज्ञी क्षायोपशमिक लब्धि से, असंज्ञी औदयिक भाव से और न-संज्ञी, न-असंज्ञी क्षायिकलब्धि से होता है / इसके स्पष्टीकरण में 'धवला' में संज्ञी शब्द की दो प्रकार की व्याख्या की गई है, वह विचारणीय है-सम्यग् जानातीति संज्ञ = मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी / नैकेन्द्रियादिना अतिप्रसंगः, तस्य मनसो भावात् / अथवा शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी / उक्तं च _ 'सिक्खा-किरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण' / जो जीवो सो सण्णी, तस्विवरीदो असण्णी दु॥ इस दूसरी व्याख्या में भी मन का पालम्बन तो स्वीकृत है ही। तात्पर्य में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा। * तत्त्वार्थसूत्र में 'संज्ञिनः समनस्का:' (संज्ञी जीव मन वाले होते हैं), ऐसा कह कर भाष्य में इसका स्पष्टीकरण किया है कि यहाँ संज्ञी शब्द से वे ही जीव विवक्षित हैं, जिनमें संप्रधारण संज्ञा हो / सम्प्रधारण संज्ञा का लक्षण किया है--ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्र 1. (क) 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता....इत्यनर्थान्तरम् / ' -तत्त्वार्थ. (ख) विशेषावश्यक गा. 12, पत्र 394 (ग) इहमेगेसि जो सण्णा भवइ, तं.पूरस्थिमायो वा दिसानो आगो प्रहमंसि इत्यादि। -प्राचारांम श्रु. 1 सू. 1 2. 'सणिणाणं वा से असमुपनन्नपुब्वे समुपज्जेज्जा, अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित्तए -दशाश्रुतस्कन्ध दशा 5 3. (क) पण्णवणासुत्तं भाग 2 (परिशिष्ट प्रस्तावनात्मक), 5. 142 (ख) स्थानांगसूत्र स्था. 1, सू. 29-32, (ग) प्रानश्यकनियुक्ति मा. 12, विशेषावश्यक गा. 394 4. (क) षट्खण्डागम, मूल पु. 1, पृ. 408 (ख) वही, पुस्तक 7, पृ. 111-112, (ग) धवला, पु. 1, पृ. 152 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org