________________ 176] [प्रजापनासूत्र समुच्चय जीव संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी होते हैं / नैरयिक तथा दस प्रकार के भवनपति देव संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी। जो नैरयिक या भवनपति संज्ञी के भव से नरक में या भवनपति देव में उत्पन्न होते हैं, वे नारक या भवनपति देव संज्ञी कहलाते हैं। जो असंज्ञी के भव से नरक में या भवनपति देवों में उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं / किन्तु नारक या भवनपति देव नोसंज्ञी नोप्रसंज्ञी नहीं हो सकते, क्योंकि वे केवली नहीं हो सकते / केवली न हो सकने का कारण यह है कि वे चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकते / मनुष्यों की वक्तव्यता समुच्चय जीवों के समान समझनी चाहिए / अर्थात् मनुष्य भी समुच्चय जीवों के समान संज्ञी, असंज्ञी तथा नोसंज्ञीनोअसंज्ञी भी होते हैं। गर्भज मनुष्य संज्ञी होते हैं, सम्मूच्छिम मनुष्य असंज्ञी होते हैं तथा केवली नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी होते हैं / पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और वाणव्यन्तर नारकों के समान संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी। जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्च समूच्छिम होते हैं, वे असंज्ञी और जो गर्भज होते हैं, वे संज्ञी होते हैं। जो वाणव्यन्तर असंज्ञियों से उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी और संजियों से उत्पन्न होते हैं, वे संज्ञी होते हैं। दोनों ही नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं होते, क्योकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते / ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी ही होते हैं. असंज्ञी नहीं, क्योंकि संज्ञी से ही उत्पन्न होते हैं। ये नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी तो हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते। सिद्ध भगवान् पूर्वोक्त युक्ति से नोसंज्ञी-नोअसंही होते हैं।' // प्रज्ञापना भगवतो का इकतीसवाँ संज्ञिपद समाप्त / / 00 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 7, पृ.३०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org