________________ प्रायमिक] [173 धारणसंज्ञा-अर्थात्-ईहा और अपोह से युक्त गुण-दोष का विचार करने वाली संप्रधारणसंज्ञा है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि समनस्क (मन वाले) संज्ञी जीव वे ही होते हैं, जो सम्प्रधारणसंज्ञा के कारण सज्ञी कहलाते हों।' * संज्ञा के इस लक्षण पर से एक वात स्पष्ट हो जाती है कि स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में प्रतिपादित आहारादि संज्ञा तथा आहार-भय-परिग्रह-मैथुन-क्रोध-मान-माया-लोभ-शोक-सुख दुःख-मोह-विचिकित्सासंज्ञा के कारण कहलाने वाले 'सज्ञी' यहाँ विवक्षित नहीं हैं। * कुल मिलाकर 'संजीपद' से प्रात्मा के द्वारा होने वाले मतिज्ञान विशिष्ट तथा गुणदोषविचारणात्मक संज्ञा प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है। O0 1. तत्त्वार्थ. भाष्य 2025 2. स्थानांग, स्था.४, स्था. 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org