________________ 17.] [प्रज्ञापनासूत्र रूप से ग्रहण करते हैं, तब दर्शन ही होता है, ज्ञान नहीं। ज्ञान तभी होगा, जब वे साकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करें।' __ 'अणागारेहि' प्रादि पदों का विशेषार्थ-(१) प्रणागारेहि-अनाकारों से पूर्वोक्त प्राकारप्रकारों से रहित-रूप से / (2) अहेतूहि-हेतु-युक्ति प्रादि से रहित रूप से / (3) अणुवमाहि-अनुपमाओं से-सदृशतारहितरूप से / (4) अदिळेंतेहि-अदृष्टान्तों से-दृष्टान्त, उदाहरण प्रादि के अभाव से। (5) श्रवणेहि-अवर्णों से अर्थात शूक्लादि वर्गों एवं गन्ध, रस और स्पर्श से रहित रूप से। (6) असंठाणेहि असंस्थानों से अर्थात् रचनाविशेष-रहित रूप में / (7) अपमाणेहिअप्रमाणों-पूर्वोक्त रूप से लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई आदि परिमाण-विशेष से रहित रूप से। (8) अपडोयारेहि अप्रत्यवतारों से अर्थात् घनोदधि आदि वलयों से व्याप्त होने की स्थिति से रहित रूप में, केवल देखते ही हैं। निष्कर्ष यह है कि केवली जब केवलदर्शन से रत्नप्रभादि किसी भी वस्तु को देखते हैं तब जानते नहीं केवल देखते ही हैं और जब जानते हैं तब देखते नहीं। इसलिए शास्त्रकार कहते हैंकेवली""जाव अपडोयारेहिं पासति, ण जाणति / // प्रज्ञापना भगवती का तीसवाँ पश्यत्तापद समाप्त // 0 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 754 से 756 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 754-755 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org