________________ तीसवाँ पश्यत्तापद] [167 जाणति / एवं जाव असत्तमं / एवं सोहम्मं कप्पं जाव अच्चुयं गेवेज्जगविमाणे अणुत्तरविमाणे ईसीपभारं पुढवि परमाणुपोग्गलं दुपएसियं खंध अणंतपदेसियं खंधं / [1963 प्र.] भगवन ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से, हेतुओं से, उपमाओं से, दृष्टान्तों से, वर्णों से, संस्थानों से, प्रमाणों से और प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय देखते हैं तथा जिस समय देखते हैं, उस समय जानते हैं ? [1963 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से यावत् प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय नहीं देखते और जिस समय देखते हैं, उस समय नहीं जानते ? [उ.] गौतम ! जो साकार होता है, वह ज्ञान होता है और जो अनाकार होता है, वह दर्शन होता है, (इसलिए जिस समय साकारज्ञान होगा, उस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) नहीं रहेगा, इसी प्रकार जिस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) होगा, उस समय साकारज्ञान नहीं होगा। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि केवलज्ञानी जिस समय जानता है, उस समय देखता नहीं यावत् जानता नहीं / इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी से यावत् अधःसप्तमन र कपृथ्वी तक के विषय में जानना चाहिए और इसी प्रकार (का कथन) सौधर्मकल्प (से लेकर) यावत् अच्युतकल्प, अवेयकविमान, अनुत्तरविमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक (के जानने और देखने के विषय में समझना चाहिए। अर्थात् इन्हें जिस समय केवली जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं।) 1964. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि अणागारेहि अहेतूहि अणुवमाहि अदिट्ठतेहि प्रवणेहि प्रसंठाणेहि अपमाहि अपडोयारेहिं पासति, ण जाणति ? हंता गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि अणागारेहि जाव पासति, ण जाणइ / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि प्रणागारेहि जाव पासति, ण जाणइ ? गोयमा ! अणागारे से दसणे भवति सागारे से णाणे भवति, से तेणढेणं गोयमा ! एवं वच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि अणागारेहि जाव पासति, ण जाणति / एवं जाव ईसीपम्भारं पुढवि परमाणुपोग्गलं अणंतपदेसियं खंधं पासइ, ण जाणइ / ॥पण्णवणाए भगवतीए तीसइमं पासणयापयं समत्तं // [1964 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से, अहेतुनों से, अनुपमाओं से, अदृष्टान्तों से, अवर्णों से, असंस्थानों से, अप्रमाणों से और अप्रत्यवतारों से देखते हैं, जानते नहीं हैं ? [1664 उ.] हाँ, गौतम ! केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org