Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ মিথলা हैं और जो चतुरिन्द्रिय चक्षुदर्शनी हैं, वे अनाकारपश्यता वाले हैं। इस हेतु से हे गौतम ! यों कहा जाता है कि चतुरिन्द्रिय साकारपश्यत्ता वाले भी हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी हैं। 1961. मणूसा जहा जीवा (सु. 1654) / [1661] मनुष्यों से सम्बन्धित कथन (सू. 1954 में उक्त) समुच्चय जीवों के समान है। 1962. अवसेसा जहा णेरइया (सु. 1655) जाव वेमाणिया। [1962] अवशिष्ट सभी (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) यावत् वैमानिक तक के विषय में (सू. 1655 में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए / ) विवेचन-किन-किन जीवों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता होती है और क्यों? --- (1) समच्चय जीवों में जो जीव श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी या केवलज्ञानी हैं अथवा श्रताज्ञानी या विभंगज्ञानी हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका ज्ञान साकारपश्यत्ता से युक्त है। जो जीव चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी तथा केवलदर्शनी हैं, वे अनाकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका बोध अनाकारपश्यत्ता है। मनुष्यों में भी समुच्चय जीवों के समान साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता दोनों हैं। नारक भी साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता वाले हैं, किन्तु नारक मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान रूप साकारपश्यत्ता से युक्त नहीं होते, तथैव केवलदर्शन रूप अनाकारपश्यत्ता वाले भी वे नहीं होते / इसका कारण यह है नारक चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते, अतएव उनमें ये तीनों सम्भव नहीं होते / पृथ्वी कायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले होते हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में श्रुताज्ञान रूप साकारपश्यत्ता होती है, अनाकारपश्यत्ता नहीं होती, क्योंकि उनमें विशिष्ट परिस्फुट बोध रूप पश्यत्ता नहीं होती / चतुरिन्द्रियों में दोनों ही पश्यत्ताएँ होती हैं, क्योंकि उनके चक्षुरिन्द्रिय होने से चक्षुदर्शनरूप अनाकारपश्यत्ता भी होती है। चतुरिन्द्रिय जीव श्रुतज्ञानी एवं श्रुताज्ञानी होने से वे साकारपश्यत्तायुक्त होते ही हैं / भवनपति वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक जीव नारकों की तरह साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता से युक्त होते हैं।' केवली में एक समय में दोनों उपयोगों के निषेध को प्ररूपणा 1963. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि प्रागारेहि हेतूहिं उधमाहिं दिलैंतेहि वहिं संठाणेहि पमाणेहिं पडोयारेहि जं समयं जाणति तं समयं पासति जं समयं पासति तं समयं जाणति? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केण→णं भंते ! एवं बुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि प्रागारेहि जाव जं समयं जाणति णो तं समयं पासति जं समयं पासति णो तं समयं जाणति ? गोयमा ! सागारे से णाणे भवति अणागारे से दसणे भवति, से तेगट्टेणं जाव णो तं समयं 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 739 से 744 तक (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 411-412 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org