________________ एगणतीसइमं उवओगपयं तीसइमं पासणयापयं च उनतीसवाँ उपयोगपद और तीसवाँ पश्यत्तापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के उनतीसवें और तीसवें, उपयोगपद और पश्यत्ता पदों में जीवों के बोधव्यापार एवं ज्ञानव्यापार की चर्चा है। जीव का या प्रात्मा का मुख्य लक्षण उपयोग है, पश्यत्ता उसी का मुख्य अंग है / परन्तु प्रात्मा के साथ शरीर बंधा होता है। शरीर के निमित्त से अंगोपांग, इन्द्रियाँ, मन आदि अवयव मिलते हैं। प्रत्येक प्राणी को, फिर चाहे वह एकेन्द्रिय हो अथवा विकलेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय, देव हो, नारक हो, मनुष्य हो या तिर्यञ्च, सभी को अपने-अपने कर्मों के अनुसार शरीरादि अंगोपांग या इन्द्रियाँ आदि मिलते हैं। मूल में सभी प्राणियों की आत्मा ज्ञानमय एवं दर्शनमय है, जैसा कि प्राचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है 'जे आया, से विनाया, जे विन्नाया से पाया / जेण विजाणइ से आया।' अर्थात्- 'जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह प्रात्मा है / जिससे (पदार्थों को) जाना जाता है, वह आत्मा है।' प्रश्न होता है कि जब सब प्राणियों की प्रात्मा ज्ञानदर्शनमय (उपयोगमय) है तथा अरूपी है, नित्य है, जैसा कि भगवतीसूत्र में कहा है'प्रवणे अगंधे अरसे अफासे अस्वी जीवे सासए अवट्टिए लोगदब्वे / से समासो पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-दध्वओ जाव गुणो। दव्वनो णं जीवस्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं, खेत्तप्रो लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ-न कयाइ न आसि, न कयावि नस्थि, जाव निच्चे, भावप्रो पुण अवण्णे अगंधे अरसे अफासे, गुणनो उवप्रोगगुणे।' यहाँ आत्मा का स्वरूप पांच प्रकार से बताया गया है। द्रव्य से अनंत जीव (आत्मा) द्रव्य हैं, क्षेत्र से लोकप्रमाण है, काल से नित्य है, भाव से वर्णादि से रहित है और गुण से उपयोगगुण वाला है। अतः समानरूप से सभी प्रात्माओं का गुण-उपयोग होते हुए भी किसी को कम उपयोग होता है. किसी को अधिक, किसी का ज्ञान त्रिकाल-त्रिलोकव्यापी है और किसी को वर्तमानकालिक तथा एक अंगुल क्षेत्र का भी ज्ञान या दर्शन नहीं होता। ऐसा क्यों ? 1. उपयोगो लक्षणम् -तत्वार्थसूत्र अ.२ 2. प्राचारांग. श्रु. 1, अ. 5, उ.५, सू. 165 3. भगवती. श. 2, उ. 10, सू. 5 (प्रा. प्र. समिति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org