________________ तीसवाँ पश्यत्तापद] (163 विवेचन-उपयोग और पश्यत्ता में अन्तर-मूलपाठ में दोनों में कोई अन्तर नहीं बताया गया / व्याकरण की दृष्टि से पश्यत्ता का अर्थ है--देखने का भाव / उपयोग शब्द के समान पश्यत्ता के भी दो भेद किये गए हैं। प्राचार्य अभयदेव ने थोड़ा-सा स्पष्टीकरण किया है कि यों तो पश्यत्ता एक उपयोग-विशेष ही है, किन्तु उपयोग और पश्यत्ता में थोड़ा-सा अन्तर है। जिस बोध में केवल त्रैकालिक (दीर्घकालिक) अवबोध हो, वह 'पश्यत्ता' है तथा जिस बोध में केवल वर्तमानकालिक बोध वह उपयोग है। यही कारण है कि साकारपश्यत्ता के भेदों में मतिज्ञान और मत्यज्ञान, इन दोनों को नहीं लिया गया है, क्योंकि इन दोनों का विषय वर्तमानकालिक अविनष्ट पदार्थ ही होता है तथा अनाकारपश्यत्ता में प्रचक्षुदर्शन का समावेश इसलिए नहीं किया गया है कि पश्यत्ता एक प्रकार का प्रकृष्ट ईक्षण है, जो चक्षुरिन्द्रिय से ही सम्भव है तथा दूसरी इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग अल्पकालिक और द्रुततर होता है, यही पश्यत्ता की प्रेक्षण-प्रकृष्टता में कारण है। अतः अनाका रपश्यत्ता का लक्षण है-जिसमें विशिष्ट परिस्फुटरूप देखा जाए। यह लक्षण चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन में ही घटित हो सकता है। वस्तुतः प्राचीनकालिक व्याख्याकारों के अनुसार पश्यत्ता और उपयोग के भेदों में अन्तर ही इनकी व्याख्या को ध्वनित कर देते हैं।' साकारपश्यत्ता का प्रमाण-प्राभिनिबोधिकज्ञान उसे कहते हैं, जो अवग्रहादिरूप हो, इन्द्रिय तथा मन के निमित्त से उत्पन्न हो तथा वर्तमानकालिक वस्तु का ग्राहक हो / इस दृष्टि से मतिज्ञान और मत्यज्ञान दोनों में साकारपश्यत्ता नहीं है, जबकि श्रुतज्ञानादि छहों अतीत और अनागत विषय के ग्राहक होने से साकारपश्यत्ता शब्द के वाच्य होते हैं / श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक होता है। अवधिज्ञान भी असंख्यात अतीत और अनागतकालिक उत्सपिणियों-प्रवपिणियों को जानने के कारण त्रिकाल-विषयक है। मनःपर्यवज्ञान भी पल्योपम के असंख्यात भागप्रमाण अतीत-अनागतकाल का परिच्छेदक होने से त्रिकालविषयक है। केवलज्ञान की त्रिकालविषयता तो प्रसिद्ध ही है। श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान भी त्रिकाल विषयक होते हैं, क्योंकि ये दोनों यथायोग्य अतीत और अनागत भावों के परिच्छेदक होते हैं / अतएव पूर्वोक्त छहों ही साकारपश्यत्ता वाले हो सकते हैं।' जीव और चौवीस दण्डकों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता का निरूपरण 1954. जीवा णं भंते ! कि सागारपस्सी अणागारपस्सी ? गोयमा! जीवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि। से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति जीवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि? गोयमा ! जे गं जोवा सुयणाणी अोहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणी ते णं जीवा सागारपस्सी, जे णं जीवा चक्खुदसणी मोहिवंसणी केवलदसणी ते णं जीवा अणागारपस्सो, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति जोवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि / 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 530 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 729 से 731 (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 714 2. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 731-732 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org