________________ 158] [1631 प्र.] पृथ्वीकायिकों के विषय में इसी प्रकार की पृच्छा ? [1631 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (नारकादि के समान) जो पृथ्वीकायिक जीव मत्यज्ञान और उपयोग वाले हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं तथा जो पृथ्वीकायिक जीव अचक्षदर्शन के उपयोग वाले होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! यों कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त कारणों से अप्कायिक, वायुकायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। 1932. [1] बेइंदियाणं अट्ठसहिया तहेब पुच्छा। गोयमा ! जाव जे णं बेइंदिया प्राभिणिबोहियणाण-सुतणाण-मतिअण्णाण-सुयअण्णाणोवउत्ता ते णं बेइंदिया सागारोवउत्ता, जे णं बेइंदिया अचक्खुदसणोवउत्ता ते णं बेइंदिया अणागारोवउत्ता, सेतेणठेणं गोयमा! एवं बच्चति / [1932 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की (उपयोगयुक्तता के विषय में पूर्ववत्) कारणसहित पृच्छा ? [1632 उ.] गौतम ! यावत् जो द्वीन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, मत्यज्ञान और श्रुत-अज्ञान के उपयोग वाले होते हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं और जो द्वीन्द्रिय अचक्षुदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। [2] एवं जाव चरिदिया। गवरं चक्खुदंसणं अभइयं चउरिदियाणं / [1932-2] इसी प्रकार (त्रीन्द्रिय एवं) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए; विशेष यह है कि चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन अधिक कहना चाहिए। 1933. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरइया (सु. 1929) / [1933] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों का (कथन सू. 1929 में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।) 1934. मणूसा जहा जीवा (सु. 1928) / [1634] मनुष्यों के विषय में वक्तव्यता (सू. 1928 में उक्त) समुच्चय जीवों के समान (जानना चाहिए।) 1935. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमागिया जहा गैरइया (सु. 1926) / // पण्णवणाए भगवतीए एगणतीसइमं उवमोगपयं समत्तं // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org