Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [147 .. इन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास-भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त--एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक कदाचित् अनाहारक होते हैं। बहुत्व की विवक्षा से अन्तिम तीन या (चार) पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में 6 भंग होते हैं-(१) कदाचित् सभी अनाहारक, (2) कदाचित् सभी पाहारक, (3) कदाचित् एक प्राहारक और एक अनाहारक, (4) कदाचित् एक आहारक, बहुत अनाहारक, (5) कदाचित् बहुत अाहारक और एक अनाहारक एवं (6) कदाचित् बहुत अाहारक और बहुत अनाहारक / नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न में (एकेन्द्रियों एवं समुच्चय जीवों को छोड़ कर) तीन भंग पूर्ववत् पाये जाते हैं। शरीर-इन्द्रिय--श्वासोच्छ्वास-पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में एकत्व की विवक्षा-से एक भंग-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा तीन भंग सम्भव हैं-(१) समुच्चय जीव और समूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्च सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं, जब एक भी विग्रहगतिममापन्न नहीं होता है, तब सभी आहारक होते हैं, यह प्रथम भंग, (2) जब एक ग्रहगतिसमापन्न होता है, तब बहत आहारक एक अन्ताहारक यह द्वितीय भंग, (3) जब बहुत जीव विग्रहगतिममापन्न होते हैं, तब बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह तृतीय भंग है / नारकों, देवों और मनुष्यों में भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त के विषय में बहुत्व की विवक्षा से 6 भंग होते हैं।' वक्तव्यता का अतिदेश- अन्तिम सूत्र में एकत्व और बहुत्व की विवेक्षा से विभिन्न जीवों के आहारक-अनाहारक सम्बन्धी भंगों का अतिदेश किया गया है। // प्रज्ञापना का अट्ठाईसवाँ पद : द्वितीय उद्देशक समाप्त / // प्रज्ञापना भगवती का अट्ठाईसवाँ आहारपद समाप्त / / 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 685 से 688 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org