Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ उनतीसवां उपयोगपव] [155 1925. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. 1912-14) / [1625] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों (के साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग) का कथन (सू. 1612-14 में उक्त) नैरयिकों के समान जानना चाहिए। 1926. मणुस्साणं जहा ओहिए उवयोगे भणियं (सु. 1608-10) तहेव भाणियव्वं / [1626] मनुष्यों का उपयोग (सू. 1608-10 में उक्त) समुच्चय (प्रोधिक) उपयोग के समान कहना चाहिए। 1927. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा रइयाणं (सु. 1612-14) / (1927] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के साकारोपयोग-अनाकारोपयोग-सम्बन्धी कथन (सू. 1612-14 में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।) विवेचन-उपयोग : स्वरूप और प्रकार-जीव के द्वारा वस्तु के परिच्छेदज्ञान के लिए जिसका उपयोजन ---व्यापार किया जाता है, उसे उपयोग कहते हैं। वस्तुत: उपयोग जोव का बोधरूप धर्म या व्यापार है। इसके दो भेद हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग / नियत पदार्थ को अथवा पदार्थ के विशेष धर्म को ग्रहण करना आकार है। जो आकार-सहित हो, वह साकार है / अर्थात्-विशेषग्राही ज्ञान को साकारोपयोग कहते हैं। प्राशय यह है कि आत्मा जब सचेतन या अचेतन वस्तु में उपयोग लगाता हुआ पर्यायसहित वस्तु को ग्रहण करता है, तब उसका उपयोग साकारोपयोग कहलाता है। काल की दष्टि से छद्मस्थों का उपयोग अन्तर्महत तक रहता है और केवलियों का एक समय तक ही रहता है। जिस उपयोग में पूर्वोक्तरूप आकार विद्यमान न हो, वह अनाकारोपयोग कहलाता है। वस्तु का सामान्यरूप से परिच्छेद करना-सत्तामात्र को हो जानना अनाकारोपयोग है / अनाकारोपयोग भी छद्मस्थों का अन्तर्मुहूर्त्त-कालिक है। परन्तु अनाकारोपयोग के काल से साकारोपयोग का काल संख्यातगुणा अधिक जानना चाहिए. क्योंकि विशेष का ग्राहक होने से उसमें अधिक समय लगता है। केवलियों के अनाकारोपयोग का काल तो एक ही समय का होता है। पृष्ठ 156 पर दी तालिका से जीवों में साकारोपयोग-अनाकारोपयोग की जानकारी सुगमता से हो जाएगी। जीव आदि में साकारोपयुक्तता-अनाकारोपयुक्तता-निरूपरण 1928. जीवा णं भंते ! कि सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि / से केणढेणं भंते ! एवं उच्चति जीवा सागारोवउत्ता वि अमागारोवउत्ता वि? गोयमा ! जे णं जीवा आभिणिबोहियणाण-सुतणाण-प्रोहिणाण-मण-केवल-मतिअण्णाणसुतअण्णाण-विभंगणाणोवउत्ता ते णं जीवा सागारोवउत्ता, जे णं जीवा चक्खुदंसण-अचक्खुदंसणप्रोहिदसण-केवलदसणोवउत्ता ते णं जीवा प्रणागारोवउत्ता, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चति जीवा 'सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. को. भा. 2, 860-62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org