________________ अट्ठाईसा आहारपद] [143 ग्यारहवाँ : वेदद्वार 1602. [1] सवेवे जोवेगिदियवज्जोतियभंगो। [1902-1] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर अन्य सब सवेदी जीवों के (बहुत्व की अपेक्षा से) तीन भंग होते हैं / [2] इथिवेद-पुरिसवेदेसु जीवादीओ तियभंगो। [1902-2] स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में तीन भंग होते हैं / [3] गपुसगवेदए जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1902-3] नपुसंकवेदी में समुच्चयजीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग होते हैं / [4] अवेदए जहा केवलणाणी (सु. 1868 [4]) / दारं 11 / {1602-4] अवेदी जीवों का कथन (सू. 1898-4 में उल्लिखित) केवलज्ञानी के कथन के समान जानना चाहिए / [ग्यारहवाँ द्वार] विवेचन-वेदद्वार के माध्यम से प्राहारक-अनाहारक प्ररूपणा-सवेदी जीवों में एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर बहुत्वापेक्षया तीन भंग होते हैं, जीवों और एकेन्द्रियों में आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी / एकत्व की विवक्षा से सवेदी कदाचित् आहारक होता है, कदाचित अनाहारक / बहुत्वापेक्षया-स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में एकेन्द्रियों एवं समुच्चय जीवों को छोड़ कर बहुत्व को विवक्षा से प्रत्येक के तीन भंग होते हैं। अवेदो का कथन केवलज्ञानी के समान है। एकत्व-विवक्षया--स्त्रीवेद और पुरुषवेद के विषय में प्राहारक भी होता है और अनाहारक भी / यह एक ही भंग होता है। यहाँ नैरयिकों, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते, अपितु नपुंसकवेदी होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा से जीवादि में से प्रत्येक में तीन भंग होते हैं। नपुंसकवेद में-एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् भंग कहना चाहिए, किन्तु यहाँ भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये नपुंसक नहीं होते। बहुत्व की अपेक्षा से जीवों और एकेन्द्रियों के सिवाय शेष में तीन भंग होते हैं। जीवों और एकेन्द्रियों में एक ही भंग होता है-पाहारक भी होते हैं, अनाहारक भी / अवेदी के सम्बन्ध में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से केवलज्ञानी के समान कहना चाहिए / एक जीव और एक मनुष्य की अपेक्षा से अवेदी कदाचित् आहारक होता है कदाचित् अनाहारक, यह एक भंग होता है। बहुत्व की अपेक्षा से-अवेदी में बहुत अाहारक और बहुत अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है। अवेदी मनुष्यों में तीन भंग होते हैं / अवेदी सिद्धों में बहुत अनाहारक' यह एक भंग ही पाया जाता है / ' --- --- ..........- . . . 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भाग. 2, पृ.५१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org