Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 642) [সাবনুগ [1600-1] सयोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग (पाये जाते हैं / ) [2] मणजोगी वइजोगी य जहा सम्मामिच्छविट्ठी (सु. 1889) / गवरं वइजोगो विलिदियाण वि। [1600-2] मनोयोगी और वचनयोगी के विषय में (सू. 1886 में उक्त) सम्यगमिथ्यादृष्टि के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह कि वचनयोग विकलेन्द्रियों में भी कहना चाहिए / [3] कायजोगीसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1600-3] काययोगी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग (पाये जाते हैं / ) [4] अजोगी जीव-मणूस-सिद्धा अणाहारगा। दारं // |1600-4] अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं, और वे अनाहारक हैं / [नौवां द्वार विवेचन-योगद्वार की अपेक्षा प्ररूपणा-समुच्चयजीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर अन्य सयोगी जीवों में पूर्वोक्त तीन भंग पाये जाते हैं / समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग ही पाया जाता है—बहुत पाहारक-बहुत अनाहारक, क्योंकि ये दोनों सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं। मनोयोगी और वचनयोगी के सम्बन्ध में कथन सम्यगमिथ्यादृष्टि के समान जानना चाहिए, अर्थात् वे एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं। यद्यपि विकलेन्द्रिय सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, किन्तु उनमें वचनयोग होता है, इसलिए यहां उनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष नारक आदि काययोगियों में पूर्ववत् तीन भंग कहना चाहिए। अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं, ये तीनों अयोगी एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होते हैं।' दसवाँ : उपयोगद्वार 1901. [1] सागाराणागारोवउत्तेसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1901-1] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जोवों में तीन भंग कहने चाहिए। [2] सिद्धा प्रणाहारगा। दारं 10 // [1601-2] सिद्ध जीव (सदैव) अनाहारक ही होते हैं / [दसवाँ द्वार] विवेचन-उपयोगद्वार की अपेक्षा से प्ररूपणा-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं। सिद्ध जीव चाहे साकारोपयोग वाला हो, चाहे अनाकारोपयोग से उपयुक्त हो, अनाहारक ही होते हैं। __ एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र 'कदाचित् आहारक तथा कदाचित् अनाहारक' , ऐसा कथन करना चाहिए।' 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 5, पृ. 579-180 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 5, पृ. 680 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org